विपश्यना
सत्यनारायण गोयन्काजी द्वारा सिखायी गयी
साधना
सयाजी ऊ बा खिन की परंपरा मैं
सातवे दिन का प्रवचन
सूक्ष्म और साथही स्थूल संवेदना की ओर से समता का महत्व – सजगता की निरंतरता पांच दोस्तों - - विश्वास, प्रयास, सजगता, एकाग्रता, ज्ञान
सात दिन समाप्त हो गयेःआपको काम करनेके लिये तीन अधिक दिन बाकी है. समझदारीसे कैसे आप अभ्यास करे यह अभ्यास करके कड़ी मेहनत और निरंतरतासे काम करकर इन दिनों का सबसे अच्छा उपयोग करें.
वहाँ तकनीक के दो पहलू हैः सजगता और समता. एकको शरीर के भीतर जो संवेदना उत्पन्न हो रही है उसपे सजगता को विकसित करना, और साथ साथ उसी समय एकको उनके प्रति समता रखनी चाहिए. समता रखनेसे स्वाभाविक रूप से अभी या बाद में, जहा संवेदना मूर्च्छित क्षेत्रों मे नही मिलती थी वहॉ प्रकट होना शुरू होगी, और स्थूल,घनिभूत,अप्रिय संवेदनाए सुक्ष्म संवेदनामे बदलना शुरु हो जाएगा. एक को पूरे शरीर में ऊर्जा का एक बहुत ही सुखद प्रवाहका अनुभव करना शुरू हो जाएगा.
जब कोइएक उस दिशा को जिसमे सुखद संवेदना का अनुभव हो रहा है उसीको लक्ष्य समझ बैठता है, तब खतरा पैदा होता है. वास्तव में, विपश्यना का अभ्यास करने का उद्देश्य खास संवेदना के प्रकार का अनुभव करने के लिए नही, बल्कि सभी संवेदना के प्रति समता विकसित करना है. संवेदनाए बदलते रहती हैं, चाहे स्थूल या सूक्ष्म. मार्ग पर की प्रगति केवल हर संवेदना के प्रती कितनी समता है इससे मापी जाती है.
पूरे शरीर में सूक्ष्म धाराप्रवाहकी अनुभुती के बाद भी किसिको, यह बहुत संभवनीय है कि फिर से स्थूल संवेदना या किसी भाग मे मूर्च्छित भाग हो सकता है. यह एक प्रतिगमन नही लेकिन प्रगति का संकेत है. जैसे ही कोइएक सजगता और समता का विकास करता है, स्वाभाविक रूप से वह अचेतन मन में गहराइसे प्रवेश करता है, और वहाँ छिपे हुए दुषितता को उपर उठाता है. जब तक यह गहराइमे सोइ हुइ दुषितता बेहोशी में रहती हैं, वे भविष्य में दुख उत्पन्न लानेवाली ही है. उन्हें समाप्त करने के लिए उन्हें मन की उपरी स्तर पर आने देना और नष्ट करना यह एक ही रास्ता है. जब ऐसी गहरी जडोवाली saṅkhārā(संस्कार) उपरी स्तर पर उत्पन्न होती है, उनमें से कई शरीर के भीतर अप्रिय, स्थूल संवेदना या मूर्च्छित क्षेत्रों के साथ हो सकती है. कोइएक प्रतिक्रिया के बिना उसे निरीक्षण करना शुरु रखता है, संवेदना नष्ट होती है, और इसके साथ संखार(संस्कार) भी जिसके वजहसे यह प्रकट होती है.
हर संवेदना, स्थूल या सूक्ष्म हो, नश्वरता का द्योतक ही है. एक स्थूल संवेदना उत्पन्न होती है और कुछ देर के लिए रहेगी ऐसा लगता है, लेकिन अभी या बाद में नष्ट हो ही जाती है. सूक्ष्म संवेदनाए उत्पन्न होती है और शीघ्र गतीसे नष्ट होती है, लेकिन अभी भी उसमे वही विशेषता है. कोई संवेदना शाश्वत नही है. इसलिए किसी भी एक संवेदना के लिये पसंती या पूर्वग्रह नही करना चाहिए. जब एक स्थूल, अप्रिय संवेदना उत्पन्न होती है, तब एक यह उदास न होते हुए देखता है. जब एक सूक्ष्म, सुखद संवेदना उत्पन्न होती है, उसका भी वह स्वीकार करता है, यहां तक कि प्रफुल्लीत होतेस्थूल उसे जुडे बिना उसका आनंद लेता है. हर वस्तुस्थिती में वह सब संवेदना के नश्वर स्वभाव को समझता है; फिर वह जब वे उत्पन्न होती है और नष्ट होती है तब मुस्करा सकता है.
अपने जीवन में वास्तविक परिवर्तन लाने के लिए शारीरिक संवेदना के स्तर पर समताका अभ्यास किया जाना चाहिए. हर क्षण में संवेदना शरीर के भीतर उत्पन्न होती है. आमतौर पर चेतन मन उससे अनजान है, लेकिन अचेतन मन संवेदना महसूस करता है और उसके प्रती राग(आसक्ति) या द्वेष की प्रतिक्रिया करता हैं. अगर मन को शरीर के ढांचे के भीतर जो कुछ हो रहा है उसके बारेमे पूरी सजगता और उसी समय समता बनाए रखने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है, तो अंधी प्रतिक्रिया करने की उसकी पुरानी आदत टूट जाती है. हर स्थिति में समता कैसी रखे यह कोइएक सीखता है, और इसलिए कोइएक संतुलित, सुखी जीवन जी सकता है.
यह प्रपंच कैसे काम करता है, यह कैसे दुःख उत्पन्न करता है इसका खुद के बारे में सच्चाई का अनुभव करने के लिए आप यहॉ आये है. मानविय प्रपंच के दो पहलू हैः भौतिक और चैतिक, शरीर और मन. दोनों पे भी ध्यान देना चाहिए. लेकिन वास्तव में संवेदना के सजगते बिना शरीर में क्या हो रहा है इसका कोइ अनुभव नहीं कर सकता है. इसी तरह मन को मन मे क्या उत्पन्न हो रहा है इसको अलगतासे नही देख सकते,याने विचार. जैसे ही कोइ मन और शरीके सच्चाईका गहराइसे अनुभव लेता है, यह स्पष्ट हो जाता है कि जब मन में कुछ उत्पन्न होता है तब शारीरिक संवेदना भी साथ होती है. शरीर और मन दोनो की सच्चाई का अनुभव करने के लिए संवेदना बहुत महत्वपूर्ण है, और इस स्थान से ही प्रतिक्रियाए शुरू होती हैं. अपने आप की सच्चाई का निरीक्षण करने के लिए और मानसिक दुषितता उत्पन्न होनेसे रोकने के लिए, किसिको संवेदना के बारे में जानकारी होनी चाहिये और लगातार अधिक से अधिक समय समता मे रहना चाहिए.
इस कारण से, शिविर के शेष दिनों में, आप ध्यान के समय मे आँखें बंद करके लगातार काम करना चाहिए; लेकिन विराम अवधि के दौरान भी, आप को संवेदना के स्तर पर सजगता और समता बनाए रखने के लिए कोशिश करनी चाहिए. चाहे चलते,खाते,पीते,या नहाते समय भी जो काम हमेशा के तरह करना चाहे वो करे ;लेकीन अपने काम(ध्यान) को धीमा न बनाए. शरीर के हलन चलन के बारे में जानकारी रखे, और उसी समय संवेदना की भी,अगर संभव हो तो शरीर का जो भाग गतियुक्त है उसपे, वरना किसी अन्य हिस्से में. सजगता और समता बनी रहे.
इसी तरह, जब आप रात में बिस्तर पर जाते है, अपनी आँखें बंद करे और शरीर के भीतर कहीं भी संवेदना को महसूस करे. अगर आप इस जानकारी के साथ सो जाते हैं, तो स्वाभाविक रूप से जैसे ही आप सुबह उठते हैं, तब आपको संवेदना के बारे में जानकारी होगी. शायद आपको प्रगाढ निंद न आयी हो, या आप भी पुरे रात भर जागते रहे हो. यह अच्छा है अगर आप बिस्तर में लेटे हुए, सजगता और समता का अवलंबन करे तब. शरीर को आराम की जरूरत है वह मिलता है, और वहाँ मन को सजगता और समता मे रहने के सिवा अन्य कोई बडा आराम नही. हालांकि, अगर आप चिंता करना शुरु करे की आप अनिद्रा शुरु हो गयी है, तो आप तनाव उत्पन्न करेंगे, और अगले दिन थकावट महसूस होगी. पुरे रातभर बैठे हुए स्थितीमे,ना ही आप जबरदस्ती से जागते रहने की कोशिश भी नही करनी चाहिए; यह एक अतीतोमे जाना होगा. अगर निंद आयी तो बहुत अच्छा; सो जाईये. अगर नींद नहीं आती है, शरीर को करवट पर लेटे हुए स्थिति में आराम करने के लिए स्विकार करे, और सजगता और समता रखकर मनको आराम दे.
बुद्ध ने कहा, "जब कोइएक साधक संवेदना के प्रती एक क्षण भी सजगताको छोडे बिना समता रखकर कडाइसे अभ्यास करता है,ऐसी व्यक्ति संवेदना को पुरी तरहसे समझकर ज्ञान को विकसित करती है.” साधक समझ जाता है की जिसे ज्ञान का अभाव है वह कैसे प्रतिक्रिया करते रहता है,और अपने दुख को बढाता है. साधक यह भी समझ जाता है की कैसे जो कोइ साधना जारी रखता है यह जानकर की सभी संवेदनाए नश्वर स्वभावकी है तब वह उन पर प्रतिक्रिया नहीं करता, और दुख से बाहर आता है. बुद्धने शुरु रखा, " पूरी तरह से इस समझ के साथ, साधक मन और शरीर के परे का अनुभव करने में सक्षम हो जाएगा --nibbāna(निब्बाण)". कोइएक निब्बाण का अनुभव नहीं कर सकता जब तक सबसे भारी saṅkhārā(संस्कार) को समाप्त नही कर देता है - उन मे से एक का अगले जीवन मे निचली स्तरपर अस्तित्व होगा जहा दुख प्रबल होगा. सौभाग्य से, जब एक विपश्यना का अभ्यास शुरू करता है, यह saṅkhārā(संस्कार) पहली बार उठते है. एक समता मे रहता है और वे नष्ट हो जाते है. जब सभी तरह के saṅkhārā(संस्कार) निकल जाते है, तो स्वाभाविक रूप से nibbāna(निब्बाण) का एक को पहले बार अनुभव आता है. यह अनुभव करने के बाद, एक पूरी तरह से बदल जाता है, और अब कौनसा भी ऐसा काम नही करेगा जो अगले जीवनमे निचेकी योनीमे जन्म देगा. धीरे-धीरे वह उच्च स्तर पे पहुचता है, जब तक अगला भविष्यकालीन जिवन दुनियामे देनेवाला saṅkhārā(संस्कार) नष्ट नही होता है. ऐसा व्यक्ति पूरी तरह से मुक्त है और इसलिए बुद्ध ने समाप्त किया, "मन और शरीर की सारी सच्चाई समझकर, जब वह मर जाता है वह स्थापित दुनिया के परे होकर निकल जाता है, क्योंकि उन्होने संवेदना को पूरी तरह से समझ लिया है".
आपने पूरे शरीर की संवेदना के बारे में सजगता को विकासित करने के अभ्यास से इस मार्ग पर एक छोटी सी शुरुआत की है. अगर आप उन पर प्रतिक्रिया न करने की सावधानी रखे, तो आपके ध्यानमे आयेगा कि पुराने saṅkhārā(संस्कार)के परदे पे परदे नष्ट हो रहे है. स्थूल, अप्रिय संवेदना की ओर समता रखकर, आप सूक्ष्म, सुखद संवेदना का अनुभव करने के लिए आगे बढ़ जाएंगे. अगर आप सजगता रखना शुरु रखते है, अभी या बाद में आप बुध्दने वर्णन किये हुए स्थिति पर पहुच जाएंगे, जिसमें सारे शारीरिक संरचना मे, साधक को उत्पन्न होने वाली और नष्ट होनेवाली संवेदनाके सिवा कुछ भी दुसरा अनुभव नही आता है. सभी स्थूल, घनीभूत संवेदना पिघल गयी; पूरे शरीर में सूक्ष्म संवेदना के अलावा कुछ भी नहीं है. स्वाभाविकतः यह स्थिति बहुत सुखकारक है, लेकिन अभी भी यह अंतिम लक्ष्य नहीं है, और एक को इससे आसक्त नहीं होना चाहिए. स्थूल दुषितता को निकाला गया है, लेकिन मन की गहराई में अभी भी कुछ बाकी हैं. एक अगर समतासे निरीक्षण शुरु रखे, एक के बाद एक सभी गहरे saṅkhārā(संस्कार)उत्पन्न हो जायेंगे और नष्ट हो जाएंगे. जब वे सारे नष्ट हो जाते है,तब एक को शास्वतता का अनुभव - मन और शरीर के परे जो है, जहां कुछ भी उत्पन्न नहीं होता है, और इसलिए कुछ भी नष्ट नही होता - nibbāna(निब्बाण)की अवर्णनीय अवस्था.
प्रत्येक व्यक्ति जो सजगता और समता से ठीक तरहसे काम करेगा वो निश्चित रूप से इस अवस्था तक पहुंच जाएगा; लेकिन प्रत्येक व्यक्ति को अपने आप काम करना चाहिए.
जैसे वहाँ पाँच दुश्मन है, पांच बाधाए जो पथ पर अपनी प्रगति को रुकावटे है, वहाँ पांच दोस्त भी है, मन की पांच हितकर आंतरिक शक्ति, जो आपको मदद और सामर्थ्य देती है. अगर आप इन मित्रोंको मजबूत और शुद्ध रखेंगे,तो कोई दुश्मन आपको पराजित नही कर पाएगा.
पहला मित्र श्रध्दा, भक्ति, विश्वास है. हमेशा संदेह और अविश्वास से अशांत होनेके वजहसे, विश्वास के बिना कोई काम नहीं कर सकता. हालांकि, अगर विश्वास अंधा होता है, यह एक महान दुश्मन है. अगर एक अपनी विवेक बुध्दी, सच्ची भक्ति क्या है इसकी योग्य समझ खो देता है तब यह अंधा हो जाता है. किसी एक का देवता या संत व्यक्ति में विश्वास हो सकता है, लेकिन अगर यह सही विश्वास, योग्य समझदारी के साथ है, तो उसे उस व्यक्ति के अच्छे गुण याद होंगे, और उन सद्गुणोंको अपनेमे लानेके लिये यह प्रेरणा हासिल करेगा. इस तरह की भक्ति अर्थपूर्ण और उपयोगी है. लेकिन अगर कोइएक जिसे भक्ति है उस व्यक्तिके गुणोंका अपनानेकी कोशिश नहीं करता है, तो यह अंधा विश्वास है, जो बहुत हानिकारक है.
उदाहरण के लिए, जब कोइएक बुद्ध की शरण लेता है, तो उसको बुद्ध के गुणों को याद रखना चाहिए, और अपने आप में उन गुणों को विकसित करने के लिए काम करना चाहिए. बुद्ध की प्रधान गुणवत्ता आत्मज्ञान है; इसलिए वास्तव मे शरण आत्मज्ञान को है, आत्मज्ञान जो आपको अपने आप में विकसित करना है. जो कोइ पूर्ण आत्मज्ञान तक पहुंच गया है, उसिको कोइएक सम्मान देता है; याने, बिना किसी एक विशेष संप्रदाय या व्यक्तिसे बंधे हुए गुणवत्ता जहॉ कही भी प्रकट होती है, उस गुणवत्ताकोही कोइ एक महत्व देता है. वास्तव मे शरण आत्मज्ञान को है.और कोइएक बुध्दको कर्मकांड या समारोहों से सम्मान नही देता है, लेकिन उनकी शिक्षाओं का अभ्यास करके, पहले कदम से धम्म के मार्ग पर चलने से, sīla(शील) से, samādhi (समाधि ) से paññā(प्रज्ञा) से nibbāna(निब्बाण ), मुक्ती के लिये.
जो कोई भी बुद्ध है उनमे निम्नलिखित गुण होना आवश्यक है. उन्होंने सभी राग(आसक्ति), द्वेष, अज्ञानता नष्ट की हो. उन्होने अपने सभी दुश्मनों, भीतर के दुश्मन याने मानसिक दुषितता पर विजय प्राप्त की हो. वह न केवल धम्म के सिद्धांत मे परिशुध्द हो, बल्की उसके प्रयोग मे भी. जैसा आचरण करता है वही सिखाता है,और जो सिखाता है वैसाही आचरण करता है; उनके शब्दों और अपने कर्मों के बीच कोई अंतर नहीं है. हर कदम वह लेता है एक सही कदम है, सही दिशा में बढनेके लिये. वह भीतर की ब्रह्मांड की खोज से पूरे ब्रह्मांड के बारे में उसने सब कुछ जान लिया है. उसमे प्रेम, करुणा, दूसरों के लिए अनुकंपित आनन्द उमडता है, और सत्य मार्ग ढूंढनेके लिये जो लोग भटक रहे हैं, उनको सही रास्ता खोजने के लिए मदद करता है. वह पुरी तरहसे समतामे परिशुध्द है. अगर कोइ एक इस गुणोंको अंतिम लक्ष्य तक पहुंचने के लिए अपने आप में विकसित करने के लिए काम करता है, तभी उसका बुद्ध में शरण लेने में अर्थ है.
इसी तरह, धम्म में शरण लेना याने सांप्रदायिकता के साथ कुछ लेना देना नहीं है; यह एक संगठित धर्म से दूसरे मे परिवर्तित होने की बात नहीं है. धम्म में शरण लेना वास्तव में सदाचार को शरण जाना है, अपने मन पर ज्ञानपूर्ण काबू पाना है. शिक्षा धम्मरूप होने के लिए, उसमे कुछ गुण होना आवश्यक है. सबसे पहले इसे स्पष्ट रूप से समझाया जाना चाहिए, ताकि हर कोई इसे समझ सके. यह कोई कल्पना नहीं है, यह धम्म एकने अपने आपमे खुद देखना है, यह वास्तविकता एक को खुद अनुभव करनी है. यहाँ तक की nibbāna(निब्बाण) का सच का जब तक अनुभव न करें, तब तक उसका स्वीकार नही करना चाहिये. धम्म ने लाभकारी परिणाम यहां और अभी देना ही चाहिए, केवल भविष्य में लाभ तथा खुशी आनेका वादा यह नही. यह "आने व देखने " की गुणवत्ता है; खुद देखें, आप खुद करे, इसे आँख बंद करके स्वीकार मत किजिये. और जिन्होंने एक बार भी इसे किया और इसके लाभों का अनुभव किया तो वह दुसरोंको प्रोत्साहित करने और दूसरों को आकर देखने मे मदद करने और साथ ही साथ देखने के लिए बतानेसे रह नही सकते. इस मार्ग का हर कदम अंतिम लक्ष्य के नजदीक ले जाता है; कोई प्रयास व्यर्थ नही जाता है. धम्म शुरु मे, बीच मे, और अंत में फायदेमंद है. अंत में, सामान्य बुद्धि की कोई भी व्यक्ति, कोई भी पार्श्वभूमी हो, इसका अभ्यास कर सकता है और लाभों का अनुभव ले सकता हैं. यह वास्तव में क्या है इसी समझ के साथ, अगर एक धम्म में शरण लेता है और यह अभ्यास शुरू करता है, तब एक की भक्ति मे सही अर्थ है.
उसी तरह, संघ में शरण लेना याने एक संप्रदाय मे शामिल होने की बात नहीं है. जो कोइ भी sīla(शीला), samādhi(समाधि), और paññā(प्रज्ञा) के पथ पर चला है और जो कम से कम मुक्ति के पहले चरण में पहुंच गया है, जो सदाचरणी व्यक्ति बन गयी है, एक संघ है. पुरुष या महिला कोइ भी हो, किसी भी दिखावेका हो, कोइ भी रंग , कौनसे भी पार्श्वभूमी का हो; कोई फर्क नहीं पड़ता. कोइ एक ऐसे व्यक्ति को देखकर प्रेरित होता है और अपने आप को उसी लक्ष्य तक पहुँचने के लिए काम करता है, तो उसका संघ में शरण लेनेमे कोइ अर्थ है, सही भक्ति है.
प्रयास एक और मित्र है. विश्वास की तरह, यह अंधा नहीं होना चाहिए. अन्यथा वहां गलत तरीके से काम करनेका खतरा हो सकता है, और अपेक्षित परिणाम प्राप्त नहीं होगा. प्रयास उचित समझदारीसे हो जाना चाहिए की कैसे एक काम करे ; फिर यह एक की प्रगति के लिए बहुत फायदेमंद हो जाएगा.
एक और मित्र है सजगता. सजगता केवल वर्तमान क्षण की सच्चाइ हो सकती है. एक को भूत के बारे में पता नहीं हो सकता है, एक इसे सिर्फ याद कर सकता हैं. एक को भविष्य के बारे में पता नहीं हो सकता, एकको इसकी आकांक्षा या भविष्य का डर हो सकता है. एक को वर्तमान समय में अपने भीतर जो सच्चाइ प्रकट होती है उसीकी जानकारी करने की क्षमता विकसित करनी होगी.
अगला मित्र है एकाग्रता,सच्चाइको बिना रुकावट जानते हुए हर क्षण बनाए रखकर उसे जानना. यह सर्व सभी कल्पना शक्ति, सभी राग(आसक्ति), सभी द्वेष से मुक्त होना चाहिए; उसके बाद ही यह सच्ची एकाग्रता है.
और पांचवा मित्र ज्ञान-बुद्धि. यह प्रवचन सुननेसे, या किताबें पढनेसे, या बौद्धिक विश्लेषण से आयी हुइ नही; एकको अपने अनुभव द्वारा अपने भीतर ज्ञान का विकास करना चाहिये, क्योंकि केवल इस अनुभवात्मक ज्ञान के बाद ही कोइएक मुक्त हो सकता है. और सच्चे ज्ञान के लिये, यह शारीरिक संवेदना के आधार पर किया जाना चाहिए: कोइएक संवेदना की ओर उसके नश्वर स्वभाव को जानते हुए समतामे रहता है. यह समता मन की गहराई से है, जो एकको दैनिक जीवन के सभी उलटफेर के बीच संतुलित रहने मे सक्षम करेगा.
संतुलित मन रखते हुए एककी सांसारिक जिम्मेदारी पुरी करते हुए, अपने आप को शांतिपूर्ण और दुसरोंको शांतिपूर्ण और सुखी करना,उचित तरीके से जीने के लिए एकको सक्षम करना यह विपश्यना का अभ्यास का उद्देश है. अगर आपने पांच मित्र को मजबूत रखा, तो आप जीवन जीनेकी कलामे परिशुध्द हो जाएंगे, और एक सुखी, स्वस्थ, अच्छा जीवन जिएंगे.
अच्छे के लिये और अपने आप को और कई के लाभ के लिए धम्म के राह पर प्रगति.
उनके दुख से उभरने के लिए और सच्चे सुख का आनंद लेंनेके लिये सभी पीड़ित प्राणियों शुद्ध धम्म के संपर्क में आये.
सबका मंगल हो!