विपश्यना
सत्यनारायण गोयन्काजी द्वारा सिखायी गयी
साधना
सयाजी ऊ बा खिन की परंपरा मैं
आठवे दिनका प्रवचन
गुणन का नियम और उसके विपरित, निर्मूलन का नियम---समता सबसे बड़ी कल्याण-- समता एकको सच्चे कर्म का जीवन जीने के लिए सक्षम बनाता है –समता मे रहने से, कोइएक अपने आप के लिए एक सुखी भविष्य सुनिश्चित करता है.
आठ दिन समाप्त हो गये; आप को काम करने के लिए और दो दिन बाकी है. बाकी दिनों में, आप ने तकनीक को ठीक से समझ लिया है ऐसा देखे , ताकि आप इसे ठीक से यहां अभ्यास कर सके और अपने दैनिक जीवन में इसका उपयोग कर सके. धम्म क्या है यह समझ लिजिये: प्रकृति, सत्य, सार्वजनीन नियम
एक तरफ लगातार वृध्दि करने की एक प्रक्रिया है. दूसरी ओर, वहाँ नष्ट होने की एक प्रक्रिया है. यह अच्छी तरह से कुछ ही शब्दों में समझाया गया था:
नश्वरता वास्तव में स्थिती विषय हैं,
स्वभाव से उत्पन्न होने वाली और नष्ट होनेवाली.
अगर वे उत्पन्न होती है और बुझा दियी जाती हैं,
उनका निर्मूलन सच्ची खुशी लाता है.
हर मानसिक स्थिती, हर (saṅkhārā) संस्कार अनित्य है, उत्पन्न होने और नष्ट होनेवाला स्वभाव है. यह नष्ट होता है, लेकिन अगले ही क्षण, बार बार उत्पन्न होता है; और इसी प्रकार यह (saṅkhārā) संस्कार द्विगुणीत होते रहता है. अगर कोइ ज्ञान बढाता है और वास्तविकतासे अवलोकन करना शुरू करता है, तब द्विगुणीत होने की प्रक्रिया बंद हो जाती है और निर्मूलन की प्रक्रिया शुरू होती है. एक saṅkhārā(संस्कार) उपर आता है, लेकिन साधक समतामे रहता है; तब वह अपनी सारी शक्ति खो देता है और नष्ट हो जाता है. पुराने (saṅkhārā) संस्कार के परते पर परते उपर आते है और अगर कोइ समता रहता है तब वे नष्ट हो जाते है. जितने saṅkhārā संस्कार नष्ट हो जाते हैं, उतना सुख उसिको मिलता है, दुःखमुक्ति की खुशी. अगर सभी पुराने (saṅkhārā) संस्कार नष्ट होते हैं, तब पूर्ण मुक्ति की असीम खुशी वह प्राप्त करता हैं.
मन की पुरानी आदत प्रतिक्रिया करने की है, और प्रतिक्रियाओं को बढावा देनेकी है. कुछ अनचाही होती है, और कोइएक द्वेष(घृणा) की (saṅkhārā) संस्कार उत्पन्न करता है. जैसे ही (saṅkhārā) संस्कार मन में उठता है, यह एक अप्रिय शारीरिक संवेदना के साथ आता है. अगले ही क्षण, प्रतिक्रिया करने की पुरानी आदत की वजह से, वह फिर से द्वेष निर्माण करता है, जो वास्तव में अप्रिय शारीरिक संवेदना की ओर जाता है. क्रोध की बाह्य प्रेरणा अप्रत्यक्ष है; वास्तव मे प्रतिक्रिया अपने भीतर संवेदना के प्रति है. अप्रिय संवेदना किसिएक के द्वेष का कारण बनता है, जो एक और अप्रिय संवेदना को जन्म देती है, जो फिर से उसे प्रतिक्रिया करने के लिए कारण बनती है. इस तरह, बढावा देने की प्रक्रिया शुरू होती है. अगर वह संवेदना पर प्रतिक्रिया नहीं करेगा, और इसके बजाय उसके अनित्य प्रकृती को समझकर मुस्कुराता है, तो वह एक नया संखार((संस्कार) उत्पन्न नहीं करता है, और (saṅkhārā) संस्कार जो पहले से ही उत्पन्न हो गया है वह बिना बढावा देते हुए नष्ट हो जाता है. अगले ही क्षण, एक और उसी प्रकारका (saṅkhārā) संस्कार मन की गहराई से उभर आयेगा; जब वह समता मे रहता है, तब यह भी नष्ट हो जाएगा. अगले ही क्षण एक और उत्पन्न होगा; कोइएक समता मे रहता है, तब यह भी नष्ट होता है. नष्ट होनेकी प्रक्रिया शुरु हो गयी है.
प्रक्रिओंको जो एक अपने आप के भीतर देखता है, पुरे विश्व भर में भी होती हैं. उदाहरण के लिए, कोइ एक वट के पेड़ के बीज बोता है. उस छोटे से बीज से एक विशाल वृक्ष होता है, जो हर साल जब तक जिंदा है तबतक असंख्य फल देता है. और उसके बाद भी पेड़ मर जाता है लेकिन प्रक्रिया जारी रहती है, क्योंकि वृक्ष के हर फल मे एक या अनेक बीज होते है, उसमे वही गुणवत्ता होगी जिस बीज से मूल वृक्ष उत्पन्न हुआ है. जब भी इन बीजों में से एक उपजाऊ धरती पर पड़ता है और उग जाता है यह दुसरा वृक्ष है जो फिरसे हजारो फल देता है जिसमे वही बीज रहते है. फल और बीज, बीज और फल; गुणन की एक अंतहीन प्रक्रिया है. उसी प्रकारसे,अज्ञान होनेके वजहसे कोइएक (saṅkhārā) संस्कार के बीज बोता है जो अभी, या बाद में एक फल देता है, जिसे कहा जाता है (saṅkhārā) संस्कार, और इसमे भी बिल्कुल उसी प्रकारका का एक बीज होता है. अगर कोइ इस बीज के लिए उपजाऊ धरती देता है तब यह एक नया (saṅkhārā) संस्कार में अंकुरित होता है, और उस के दुःख को बढावा देता है. हालांकि, अगर कोइएक चट्टानी धरती पर बीज डालता है, तब वे अंकुरित नहीं हो सकते हैं; उससे कुछ भी उत्पन्न नही होगा. बढने की प्रक्रिया बंद हो जाती है, और अपनेआप उलटी, निर्मूलन की प्रक्रिया शुरू होती है.
समझ लिजिये यह प्रक्रिया कैसे काम करती है. यह समझाया गया था कि जीवन प्रवाह,मन और शरीरका प्रवाह शुरु रहने के लिये कुछ इनपुट आवश्यक होता है. शरीर के लिए इनपुट भोजन है,जो कोइ एक खाता है. साथ ही वातावरण भी होता है जिस मे वह रहता है. अगर एक दिन कोइ एक खाना नहीं खाता है, तब भी शरीर का प्रवाह तुरंत बंद नही होता. अपने शरीर के भीतर के पुराने संचयित ऊर्जा के खपत से वह शुरु रहता है. जब सभी संग्रहित ऊर्जा का सेवन किया जाता है, उसके बाद ही प्रवाह रुक जाता है, शरीर मर जाता है. शरीर को एक दिन में केवल दो या तीन बार भोजन की जरूरत है, लेकिन मन के प्रवाह को हर क्षण इनपुट की आवश्यकता होती है. मानसिक इनपुट saṅkhārāसंस्कार है.हर क्षण कोइ एक saṅkhārā संस्कार के इनपुट देता है, और चेतना का प्रवाह शुरु रहता है. अगर किसी भी क्षण में कोइ एक नया saṅkhārā संस्कार उत्पन्न नहीं करता है प्रवाह तुरंत बंद नहीं होता है; इसके बजाय वह पुराने संग्रहितsaṅkhārā संस्कार से ऊर्जा लेता है. एक पुराना saṅkhārā संस्कार उसीका फल देनेके लिये मजबूर हो जाएगा, याने प्रवाह बनाए रखने के लिए मन की उपरी स्तर पर आयेगा; और यह एक शारीरिक संवेदना के रूप में प्रकट होगा. कोइ एक संवेदना के प्रति प्रतिक्रिया करता है, तो फिर से कोइ एक नया saṅkhārāसंस्कार बनाने शुरू करता है, दुख का नया बीज डालता है. लेकिन अगर कोइ एक समता के साथ संवेदना देखता है, तब saṅkhārāसंस्कार अपनी ताकत खो देता है और नष्ट होता है. अगले ही क्षण एक और पुराने संखारा(संस्कार) को मानसिक प्रवाह बनाए रखने के लिए उपर आना होगा. फिर कोइ एक प्रतिक्रिया नहीं करता है, तो वह फिर से नष्ट होता है.जब तक कोइ सजग और समता मे रहता है, पुराने saṅkhārā संस्कार के परते पे परते उपरी स्तर पे आते है और नष्ट हो जाते है; यह प्रकृति का नियम है.
किसिएक को तकनीक के अभ्यास द्वारा प्रक्रिया का अपने आप को अनुभव करना चाहिये. जब कोइ अपने पुराने आदत का पैटर्न, पुराने दुखका निर्मुलन हुआ है यह देखता है, तो एक जानता है कि निर्मूलन की प्रक्रिया काम करती है.
एक अनुरूप तकनीक आधुनिक धातु विज्ञान में मौजूद है. कई धातुओंकी अति सफाइ,उच्चतम शुध्दी के लिये, दस खरब मे से भी एक अन्य जातीय अणु को दूर करने की आवश्यकता है. यह एक डंडे के आकार में धातु को ढहा जानेसे किया जाता है, और फिर उसी धातु का जो पहलेही आवश्यक शुध्दतातक साफ किया है और उसका एक वलय बनाते है. यह वलय डंडे के उपर घुमाया जाता है, और एक चुंबकत्व उत्पन्न करता है जो डंडे के अखिरी तक किसी भी दुषितता को ले जाता है. इसी समय, धातु की डंडे में सभी अणुओं को पंक्तिबध्द करता है; यह लचीला, मुलायम, उस पर काम करने लायक होता है. उसी तरह, विपश्यना की तकनीक शारीरिक संरचना पर शुद्ध सजगता की एक वलय(अंगूठी) के घुमाना जैसे माना जा सकता है,वैसे ही फायदे के लिये कोइ भी दुषितता को बाहर निकाल देता है.
सजगता और समता से मन का शुद्धिकरण होगा. इस रास्ते पर एकको कुछ भी अनुभव हो, चाहे प्रिय या अप्रिय, कोइ महत्व नही. महत्वपूर्ण बात यह है की आसक्ती या द्वेष की प्रतिक्रिया न करनेकी,क्योकि दोनो दुःख के सिवा कुछ भी उत्पन्न नही करेंगे. रास्ते पर किसीएक की प्रगति को मापने के लिए केवल समता कितनी है यह एक ही मापदण्ड है. अगर किसिको मनके गहराई तक जाकर दुषितता का निर्मूलन करना है तो समता शारीरिक संवेदना से जुडी होनी चाहिए. अगर कोई संवेदना को जानना सिखता है और उसके प्रति समता रखता है, तब बाहरी स्थितियों में भी उसिको संतुलन अच्छी तरहसे रखना आसान हो जाता है.
बुद्ध को एक बार पूछा गया था कि असली कल्याण क्या है. उन्होंने कहा कि उच्चतम कल्याण जीवन के सभी उलटफेर, उतार चढ़ाव, के बावजूद किसीएक के मन का संतुलन बनाए रखने की क्षमता कितनी है उसमे है. एकको सुखद या दुखद परिस्थितीयों, जीत या हार, लाभ या हानि, अच्छा या बुरा नाम का सामना करना पड सकता हैं; हर किसीको इन सबका मुकाबला करना पडता है. लेकिन एक हर स्थिति मे, क्या कोइ अपने हृदयसे सच्चाईसे मुस्करा सकता हैं? अगर किसिएक को भीतर की गहरे स्तर पर समता है, तो वह सच्चा सुखी है.
अगर समता केवल उपरी स्तर पर है तो यह दैनिक जीवन में काम नहीं आयेगी. यह प्रत्येक व्यक्ति पेट्रोल की टंकी, या गॅसोलिन अपने भीतर ले चल रहा है. अगर एक चिंगारी आती है, जो एक पुराने प्रतिक्रिया का एक फल, तुरंत लाखों अधिक चिंगारी उत्पन्न करते हुए एक महान विस्फोट होता है, तो अधिक saṅkhārā(संस्कार), जो और अधिक आग, भविष्य में और अधिक दुःख लाएगी. विपश्यना के अभ्यास से, एक धीरे-धीरे टैंक खाली करता है. चिंगारी अभी भी एक पुराने saṅkhārā(संस्कार) की वजह से आती हैं, लेकिन जब वे आते हैं, वे केवल अपने साथ लाया हुआ ईंधन जल जाएगा; कोई नया ईंधन नही दिया जाएगा. वे संक्षेप में जलते रहेंगे, जब उनका ईंधन खत्म नही होता, और फिर वे बुझ जाएगा. बाद में, जब कोइएक पथ पर आगे बढता है,तो स्वाभाविक रूप से प्रेम और करुणा के ठंडा पानी निर्माण करना शुरू करता है, और टंकी इस पानी से भर जाती है. अब, जैसे ही एक चिंगारी आती है, वह बुझ जाती है. यहातक की उसमेका अल्प ईंधन भी जल नही सकता.
एक बौद्धिक स्तर पर इस बात को समझ सकता है, और यह भी जानता है कि आग शुरु हुइ तो एक पानी का पंप तय्यार रखना चाहिये. लेकिन जब वास्तव में जब आग आती है, कोइएक पेट्रोल पंप चलाता है और बडी आग शुरू होती है. बाद में गलती का एहसास करता है, लेकिन अभी भी जब आग आती है, यह अगली बार भी दोहराता है, क्योंकि एक का ज्ञान केवल छिछला है. अगर किसी को मन की गहराई तक सच्चा ज्ञान है, तब ऐसा व्यक्ति आग का सामना करना पडे तो इससे केवल नुकसान का कारण होगा यह समझकर उसपे पेट्रोल नही डालेगा. इसके बजाय एक दूसरों के लिए और अपने आप को मदद मिलने के लिये प्रेम और करुणा का ठंडा पानी डालेगा.
ज्ञान संवेदना के स्तर पर होना चाहिए. अगर आप अपने को कोइ भी परिस्थितीमे संवेदनाकी जानकारी और उनके प्रति समता रखनेके लिये प्रशिक्षित होते हो, तो कुछ भी आपके उपर सवार नहीं हो सकेगा. शायद सिर्फ कुछ क्षणों के लिए आप बिना प्रतिक्रिया निरीक्षण करते हैं. फिर, इस संतुलित मन के साथ, आप क्या कार्यवाही करे इसका फैसला लेते है. क्योंकि यह एक संतुलित मन के साथ किया जाता है इस लिये यह सही कार्यवाही, सकारात्मक, दूसरों के लिए साहाय्यक होना स्वाभाविक है.
कभी कभी जीवन में कड़ी कार्यवाही करना आवश्यक होता है. कोइएक मुस्कराकर विनम्रता के साथ, धीरे से किसी को समझाने की कोशिश करता है, लेकिन वह व्यक्ति केवल कठोर शब्द, कठोर कृत्य को ही समझ सकता हैं. इसलिए किसि को कठोर शब्द या शारीरिक क्रिया का प्रयोग करना पडता है. लेकिन ऐसा करने से पहले, किसिको अपने आप को जांचना चाहिये कि क्या मन संतुलित है, और उस व्यक्तिके प्रति सिर्फ प्रेम और करुणा है. यदि हां, तो कार्यवाही उपयोगी होगी; अगर नहीं, तो इससे किसी को मदद नहीं मिलेगी. कोइएक गलती करनेवाली व्यक्ति को मदद करने के लिए कठोर कार्यवाही करता है. प्रेम और करुणा के इस आधार पर कोइएक गलत नहीं हो सकता.
आक्रमकता के एक उदाहरण में, एक विपश्यना साधक हमलावर और पीडित को अलग करने के लिए, न केवल पीडित के लिए बल्कि हमलावर के लिए करुणा से काम करेंगे. कोइएक को एहसास होता है कि हमलावर कैसे वह खुद को नुकसान पहुँचा रहा है इसका पता नहीं है. यह समझनेके बाद, एक उसे भविष्य में दुख का कारण होनेवाले कृत्य का प्रदर्शन से रोककर व्यक्ति की मदद करने की कोशिश करता है.
हालांकि, आप केवल घटना के बाद अपनी कार्रवाई का समर्थन न करने मे सतर्क रहना चाहिये. आप कृत्य से पहले मन की जांच किजिये. अगर मन दुषितता से भरा है, तो कोइएक किसी की मदद नहीं कर सकता. दूसरों के दोष को सुधारने के पहले एक को अपने दोष को सुधारना चाहिये सबसे पहले अपने आप को देख कर खुद के मन को शुद्ध करना चाहिए. उसके बाद ही आप बहुतों को मदद कर सकेंगे.
बुद्ध ने कहा कि दुनिया में चार प्रकारके लोग होते हैं: जो अंधकार से अंधकार की ओर दौड रहे हैं, जो लोग प्रकाश से अंधकार की ओर दौड रहे हैं, जो लोग अंधकार से प्रकाश की ओर दौड रहे हैं, और जो लोग प्रकाश से प्रकाश की ओर दौड रहे हैं.
पहले समूह में एक व्यक्ति के लिए, चारों ओर वहाँ दुख, अंधकार है, लेकिन उसका सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि उसके पास कोई भी ज्ञान नही है. हर बार किसी भी दुःख से मुठभेड करना पडता है तो वह और अधिक क्रोध,अधिक घृणा,अधिक द्वेष पैदा करता है, और उसकी पीड़ा के लिए दूसरों को दोष देता हैं. क्रोध और द्वेष के उन सभी saṅkhārā (संस्कार) उसे भविष्य में केवल अधिक अंधकार, और अधिक दुख लाएगा.
दूसरे समूह में एक व्यक्ति को दुनिया में प्रकाशमान कहा जाता है: पैसा, स्थान, सामर्थ्य, लेकिन उसिको भी कोई ज्ञान नही. अज्ञान के वजहसे वह अहंकार विकसित करता है, यह नही समझता कि अहंकार के तनाव उसे भविष्य में सिर्फ अंधेरा लाएगा.
तीसरे समूह में एक व्यक्ति की स्थिती भी पहले प्रकारके व्यक्ति जैसी है, अंधेरे मे घिरा हुआ; लेकिन उसको ज्ञान है, और स्थिति को समझता है. अपनी पीड़ा के लिए आखिर वह ही जिम्मेदार है यह मानते हुए, वह शांत चित्तसे और शांति से इस स्थिति को बदलने के लिए वह जो कर सकता हैं वह करता है, लेकिन दूसरों के प्रति किसी भी क्रोध या घृणा के बिना करता है; इसके बजाय उसे जो नुकसान पहुँचाने के लिए कर रहे हैं उसके प्रति केवल प्रेम और करुणा है. अपने भविष्य के लिए वह प्रकाश ही प्रकाश बनाता है.
अंत में चौथे समूह में एक व्यक्ति, दूसरे में जैसा ही एक, पैसा, स्थान, और सामर्थ्य प्राप्त करता है, लेकिन दूसरे समूह में एक के विपरीत, वह भी ज्ञान से परिपूर्ण है. वह खुद को और उन पर जो निर्भर है उनके निर्वाह के लिए जो कुछ उनके पास है उसका उपयोग करता है, लेकिन जो कुछ भी बचता है वह दूसरों की भलाई के लिए उपयोग करता है, वो भी प्रेम और करुणा के साथ. अब और भविष्य मे भी प्रकाश ही प्रकाश.
अब अंधेरा या प्रकाश का सामना करना पडे इसका कोई चयन नहीं कर सकता हैं; यह उसके पुराने saṅkhārā (संस्कार) निर्धारित करते है. भूतकाल नहीं बदला जा सकता, लेकिन कोइएक अपने आप का स्वामी बनकर वर्तमान का नियंत्रण ले सकता हैं. भविष्य केवल भुतकाल और अधिक वर्तमान मे जोडे गये कर्मोका होता है. संवेदना के प्रति सजगता और समता रखकर स्वयं का कैसे मालिक बने यह विपश्यना सिखाता है. अगर कोइएक वर्तमान क्षण में इस स्वामित्व को विकसित करता है, तो भविष्य अपनेआप उज्ज्वल हो जाएगा.
वर्तमान क्षण का स्वामी बनने के लिये, खुद के स्वामी कैसा बने यह जानने के लिए बाकी दो दिनों का उपयोग करें. सब दुख से बाहर आने के लिए, और यहाँ और अब असली सुख का आनंद लेंनेके लिये धम्म में आगे बढ़ते रहे.
सबका मंगल हो!