विपश्यना
सत्यनारायण गोयन्काजी द्वारा सिखायी गयी
साधना
सयाजी ऊ बा खिन की परंपरा मैं
पाँचवे दिन का प्रवचन
चार आर्य सत्य: दुःख, दुःख का कारण, दुःख का निर्मूलन, दुःख के निर्मूलन का रास्ता - स्थिती उत्पन्न होने वाली श्रृंखला
पांच दिन समाप्त हो गये; आपको काम करनेके लिये और पांच दिन बाकी है. कड़ी मेहनत करके विद्याको अच्छी तरहसे समझकर बाकी दिनोंका अच्छा उपयोग करे.
सीमित क्षेत्र में सास के अवलोकन से, पूरे शरीर में संवेदना का अवलोकन करनेके लिए आप आगे बढ गये. जब कोईएक इसका अभ्यास शुरु करता है तब यह संभवनीय है कि पहले स्थूल,घनीभूत,तीव्र अप्रिय संवेदना जैसे की पीडा,दबाव इत्यादी का सामना करना पड सकता है. आपको भूतकाल में इस तरह के अनुभवों का सामना करना पड़ा था, लेकिन अपने मन की आदत पैटर्न उस समय संवेदना के प्रती प्रतिक्रिया करने की थी,खुशी मे घुमनेकी और दुःख मे चकराने की और हमेशा अशांत रहनेकी थी. अब आप प्रतिक्रिया किये बिना कैसे निरीक्षण करे, और उनके वस्तुनिष्ठ दृष्टीसे पहचान के बिना संवेदना की जांच करना सीख रहे हैं.
दर्द है, दुःख भी मौजूद है. रोनेसे किसी को भी दुःखसे मुक्ति नहीं मिलेगी. कोइएक इससे कैसे बाहर आये? इसके साथ कैसे जीना जीये?
एक डॉक्टर को एक बीमार व्यक्ति के इलाज के लिए क्या बीमारी है और बीमारीका प्रमुख कारण क्या है इसका पता होना चाहिए. अगर एक कारण है, तो वह कारण हटाकर बाहर आनेका रास्ता भी होना चाहिए. एक बार कारण हटा दिया जाये, तो बीमारी अपनेआप निकल जाएगी. इसलिये कारण के निर्मूलन के लिए कदम उठाना चाहिए.
सबसे पहले किसिकोभी दुःख के इस तथ्य को स्वीकार करना चाहिए. हर जगह दुःख मौजूद है; यह एक सार्वजनीन सत्य है. लेकिन जब कोइ बिना प्रतिक्रिया से इसको अवलोकन करता है, क्योंकि जो ऐसा करता है तब एक महान, संत व्यक्ति बन ही जाता है यह आर्य सत्य है.
जब कोईएक, दुःख की सच्चाई का पहला नोबल(आर्य) सत्य अवलोकन करना शुरु करता है, तो बहुत जल्द उसिको दुःख का कारण स्पष्ट हो जाता है, और इसका अवलोकन भी शुरू करता है; यह दूसरा आर्य सत्य है.अगर कारण नष्ट होता है, तो दुःख भी नष्ट होगा; दुःख का निर्मूलन - यह तीसरा आर्य सत्य है. इसका निर्मूलन हासिल करनेक लिये कदम उठाना चाहिए; कारण को निकालना यह दुःख के अंत का रास्ता- यह चौथा आर्य सत्य है.
प्रतिक्रिया के बिना निरीक्षण करना कोइएक सिखना शुरू करता है. आपके पीडा का निष्पक्ष परिक्षण आप करे, जैसे कि यह किसी और की पीडा है. एक वैज्ञानिक जो अपनी प्रयोगशाला में एक प्रयोग देखता है उसी तरह आप यह निरीक्षण करे. अगर आप असफल हो, तब फिरसे कोशिश करें. कोशिश करते रहिये, और आप देखेंगे कि धीरे-धीरे आप दुख से बाहर आ रहे हैं.
हर जिवित प्राणी को दुःख भोगना पडता है. जीवन रोने के साथ शुरू होता है; जन्म भी महान दुःख है. और जो भी जन्म लेता है उसीको बीमारी और बुढ़ापे के दुःखो मेसे गुजरना पडता है. लेकिन कितना भी जीवन दुःखी हो, कोई भी मरना नही चाहता, क्योंकि मृत्यु एक महान दुःख है.
जीवन कालमे, जो चीजें पसंद नहीं है उससे किसिकोभी मुकाबला करना पड़ता है, और जो चीजें पसंद है उससे अलग होना पडता है. अनचाही घटना होती रहती है, मनचाही घटना होती नही, और वह दुःख महसूस करता है.
सिर्फ बौद्धिक स्तर पर इस सच्चाई को समझने से कोई मुक्त नही हो सकता.सच्चाई का अनुभव करने के लिए और दुख से बाहर आने का रास्ता खोजने के लिए, अपने भीतर देखने के लिये यह केवल प्रेरणा दे सकती हैं. यही है जो बुद्ध बनने के लिए सिद्धार्थ गौतमने कियाः उन्होने एक संशोधक वैज्ञानिक की तरह अपने शरीर के ढांचे के भीतर की सच्चाई को स्थूल सच्चाई से आगे बढकर, भासमान सच्चाई से सूक्ष्म,सुक्ष्मतम सच्चाई तक देखना शुरु किया. उन्होंने देखा कि जब भी किसिको एक सुखद संवेदना कायम रखने के लिए या एक दुःखद संवेदना से छुटकारा पाने के लिए आसक्ति होती है, और जब उस आसक्ति को पूरा नहीं कर पाता, तो वह दुःखी होता है. और सूक्ष्मतम स्तर पर आगे जाकर, उन्होंने देखा कि जब पूरी तरह से एकाग्र मन से देखा, तो यह स्पष्ट हुआ कि पांच समुच्चय की आसक्ति ही दुःख है. बुध्दिसे समझ सकते हैं कि समग्र शरीर, "मैं" नहीं, "मेरा" नहीं, लेकिन केवल एक अव्यक्तिगत, बदलते रहना तो इसका स्वभाव है और किसिके भी नियंत्रण के बाहर है; वास्तव में, किसिकोभी शरीर से पहचाना जाता है, और इससे गहरी आसक्ति पैदा करता है. इसी तरह कोइ एक चार मानसिक समुच्चय चेतना, बोध, संवेदना, प्रतिक्रिया के बदलते हुए प्रकृती को जानते हुए भी “मै” और “मेरा” से चिपकाव पैदा करता है. व्यवहार के लिए एक शब्द "मैं" और "मेरा" बोलना तो पडता ही है, लेकिन जब कोई एक पांच समुच्चय के प्रती आसक्ति पैदा करता है, तो अपने लिये दुःख तयार करता है. जहां कहीं भी आसक्ति है, वहां दुख होना स्वाभाविक है, और जितनी अधिक आसक्ति, उतना अधिक दुख है.
कोई भी अपने जिवन मे चार प्रकारकी आसक्ति उत्पन्न करता है. अपने आकांक्षो के प्रति तृष्णा की आदत लगने तक पहली आसक्ति है. जब भी आसक्ती मन में उठती है, एक शारीरिक संवेदना साथ होती है. यद्यपि गहरे स्तर पर अशांति का एक तूफान शुरू हो जाता है, कोईएक उपरी स्तर पर कि संवेदना को पसंद करता है और इसे शुरु रहनेकी इच्छा करता है. यह एक फोडे को खुजलाने के साथ तुलना की जा सकती है: ऐसा करने से केवल यह बढ़ जाती है, और अभी भी खुजलाहट से आनंद लेता है.उसी तरह, जैसे ही एक इच्छा पूरी होती है, इच्छा के साथ आयी हुइ संवेदना भी चली जाती है, और इसलिए संवेदना शुरु रखनेके लिये कोइएक नयी इच्छा उत्पन्न करता है. एक तृष्णा के प्रति आधीन हो जाता है और दुःख को द्विगुणित करता है.
इस 'मैं' को वास्तव में जाने बिना एक और आसक्ति "मैं", "मेरा" के प्रति चिपकाव है. कोइ भी "मैं" की कोई आलोचना या इसे क्षति पहुचाना सहन नहीं कर सकता. और जो कुछ भी "मैं", जो कुछ भी "मेरा" के अंतर्गत आता है वहा तक यह आसक्ति फैलती है. जब तक “मेरा” कि शाश्वतता शुरु रहती है तबतक यह आसक्ति दुःख नही लाती है, और "मैं" भी यह नित्यताका आनंद लेता है, लेकिन अभी या बाद में एक या दूसरा प्रकृति के नियम के अनुसार नष्ट होताही है. जो नश्वर है उसके प्रति आसक्ति रखना दुःख लाने वाला ही है.
इसी तरह, कोइभी अपने विचारों और विश्वासों के लिए आसक्ति पैदा करता है, और किसी भी तरहकी उसकी आलोचना सहन नहीं कर सकता, या दूसरों के विचार भिन्न हो सकते है इसका भी स्वीकार नही करता है.हर कोई रंग का चश्मा, प्रत्येक व्यक्ति अलग रंग का चश्मा लगाता है इसे कोई समझता नहीं. चश्मा हटाकर, क्योंकि यह बिना रंगका है इसलिये एक सच्चाई को देख सकता हैं, लेकिन इसके बजाय कोईएक अपने पूर्वग्रहों और विश्वासों के लिए अपने रंगीन चश्मेसे जुडा रहता है, .
किसी के संस्कार, रीति-रिवाज और धार्मिक प्रथाओं के प्रति अभी एक और आसक्ति रहती है. कोई यह समझता ही नही कि यह केवल बाहरी दिखावा है, इसमे सच्चाई का कोई सार शामिल नहीं है. किसी तरह से अगर किसिको सीधे अपने भीतर सत्य का अनुभव करने का रास्ता बताया लेकिन वह निरर्थक बाह्य रूपों से चिपकाव रखता है,और यह आसक्ति संघर्ष पैदा करती है, परिणामस्वरूप दुःख पैदा करती है.
अगर बारीकी से जीवन के सारे दुःख की जांच करे तो, इन चार आसक्तिओ मे एकको या दुसरेको उभरता हुआ देखेंगे. सत्य के लिए अपनी खोज में, सिद्धार्थ गौतम ने इसीका अनुभव किया. और आगे भी यह समझनेके लिये की पुरा प्रपंच कैसे काम करता है,उसका उद्गम कहा होता है . अपने दुःख का कारण गहराइसे ढुंढनेके लिये उन्होने अपने भीतर की जांच शुरु रखी.
जन्म लेनेका अपरिहार्य परिणाम बीमारी, बुढ़ापा, मृत्यु, शारीरिक और मानसिक दर्द और जीवन के कष्ट हैं. फिर जन्म का क्या कारण है? बेशक माता-पिता की शारीरिक मिलन तात्कालीक कारण है, लेकिन एक व्यापक दृश्य स्वरुप में, जिसमें पूरे ब्रह्मांड शामिल है ऐसे एक अंतहीन प्रक्रिया के कारण जन्म होता है. यहाँ तक कि मृत्यु के समय भी यह प्रक्रिया बंद नहीं होती: जबकि चेतना अन्य घटकोंके संरचना के साथ जुडी है, शरीर का ऱ्हास,विघटन जारी है, और भव के लिये बहना जारी है. और बनने की यह प्रक्रिया क्यो है? यह उसे स्पष्ट हुआ की हर किसिको को निर्माण होनेवाली आसक्ति ही इसका कारण है. कोइएक आसक्तिकी वजहसे मजबूत प्रतिक्रियाए उत्पन्न करता है, saṅkhārā (संस्कार), जो मन पर गहरी छाप उत्पन्न करता है. जीवनके अंतकालमे, इनमेसे एक मनमे आयेगी और चेतनाका बहाव शुरु रहनेके लिये धक्का देगी.
अब इस आसक्ति का कारण क्या है? उन्होंने देखा कि पसंद और नापसंद के क्षणिक प्रतिक्रियाओं कि वजह से यह उत्पन्न होती है. पसंदी बडे रागमे परावर्तित करती है; और नापसंदी बडे द्वेषमे, राग कि प्रतिमा और दोनों आसक्ति मे बदल जाते है. और पसंदी और नापसंदी की क्षणिक प्रतिक्रियाऍ क्यो होती है?जो कोइ खुद का निरिक्षण करेगा तो उसिको मालूम होगा की वे शारीरिक संवेदनाके वजहसे होती है. जब भी सुखद संवेदना पैदा होती है, वह इसे पसंद करता है और बनाए रखने और गुणा करना चाहता है. जब भी कोई अप्रिय संवेदना पैदा होती है, वह इसे नापसंद करता और इसीसे छुटकारा प्राप्त करना चाहता है. तो फिर ये संवेदनाए क्यों है? वे इंद्रियों और उसके विषयाधीन बाह्य वस्तु के बीचके संपर्क के वजहसे उत्पन्न होती हैः दृष्टि के साथ आंख का संपर्क, ध्वनि के साथ कानका संपर्क,गंधसे नाकका संपर्क,स्वाद के साथ जीभका संपर्क,शरीरके साथ स्पर्शका संपर्क,मनका विचार या कल्पनासे संपर्क. जैसे ही वहाँ संपर्क होता है, एक सुखद दुःखद, या तटस्थ संवेदना उत्पन्न होनेवाली ही है.
और संपर्क के लिए क्या कारण है? स्पष्ट है, पूरा ब्रह्मांड विषय वस्तुओं से भरा है. जब तक छह इंद्रिय विषय - पांच शारीरिक, मन के साथ - कार्य कर रहे हैं, वे अपने संबंधित विषयवस्तुओं से मुकाबला करनेवालेही हैं. और यह इंद्रियों क्यो मौजूद है? यह स्पष्ट है कि वे मन और शरीर के मिले-जुले प्रवाह का अविभाज्य अंग हैं; जैसे ही जीवन प्रवाह शुरु होता है वे उत्पन्न होती हैं. और शरीर का जीवन प्रवाह क्यों चलता है,मन और शरीर का जीवन प्रवाह क्यो घटित होता है? क्योंकि चेतना का प्रवाह, पल से पल तक, एक ही जीवन से अगले तक शुरु रहता है. और चेतना का यह प्रवाह क्यो? उन्होंने देखा कि इसकी वजह sakhara(संस्कार) मानसिक प्रतिक्रियाए है. हर प्रतिक्रिया चेतना के प्रवाह को एक धक्का देती है; प्रतिक्रियाओं ने दिये हुए बल की वजहसे यह प्रवाह शुरु रहता है. और प्रतिक्रियाओं क्यो होती है? उन्होंने देखा की वे अविद्या की वजह से उत्पन्न होती हैं. किसी को पता नहीं वह क्या कर रहा है, यह मालूम भी नही प्रतिक्रिया कैसे कर रहा है, और इसलिए वो एक sakhara (संस्कार) पैदा करते रहता है. जब तक अविद्या(अज्ञान) रहेगी तब तक वहाँ, दुःख रहेगा.
दुःख के प्रक्रिया का स्त्रोत, एक गहरा कारण अज्ञान(अविद्या) है. अज्ञान से घटनाओं की श्रृंखला शुरु होती है जिससे कोईएक अपने लिए दुःख के पहाड उत्पन्न करता है. अगर अज्ञान दूर किया जाएगा, तो दुःख भी खत्म होगा.
कोईएक यह कैसे हासिल कर सकता हैं? कैसे कोई इस श्रृंखला को तोड़ सकता है? मन और शरीर का जीवन प्रवाह,पहले से ही शुरू हो गया है. आत्महत्या इस समस्या का हल नहीं है; यह केवल नया दुःख पैदा करेगा. खुदको नष्ट किये बिना इंद्रियों को नष्ट नही कर सकता. जहा तक इंद्रियो मौजूद हैं, उनका संबंधित विषयोंसे संपर्क होनेवाला ही है, और जब भी संपर्क होगा, एक संवेदना शरीर के भीतर पैदा होगी ही.
अब यहाँ, संवेदना की कड़ी से, कोईएक श्रृंखला तोड़ सकता हैं. इससे पहले, हर संवेदना पसंदी या नापसंदी की प्रतिक्रिया को जन्म देती थी, जो महान आसक्ति(राग) या द्वेष याने महान दुःख को जन्म देती थी. लेकिन अब, प्रतिक्रिया करने बजाय, आप सिर्फ -- "यह भी बदल जाएगा" यह समझते हुए संवेदनाको समतासे निरीक्षण करना सीख रहे हैं. इस तरहसे संवेदना को aniccā(अनिच्च) समझने से, केवल प्रज्ञान का उदय होता है. कोई एक दुःख का चक्र बंद करता है और विपरीत दिशा में, मुक्ति की दिशा में इसे घुमाना शुरु करता है.
जब कोई किसी भी क्षण में नया sakhara (संस्कार) उत्पन्न नहीं करता है तब पुराने संखारमेसे एक मन की उपरी स्तर पर आयेगा, और इसके साथ साथ एक संवेदना शरीर के भीतर शुरू होगी. कोइ एक समतामे रहता है,तो यह नष्ट होती है और उसके जगह एक पुरानी प्रतिक्रिया उभर आती है. कोइ एक शारीरिक संवेदना के प्रती समता मे रहता है तब पुराने sakhara(संस्कार) उपर उभर आते है और समतामे रहनेसे एक एक करके नष्ट हो जाते है. अगर अज्ञानता के वजह से कोईएक संवेदना को प्रतिक्रिया करता है, तो वहsakhara(संस्कार) को गुणन करता है,अपने दुःखको द्विगुणित करता है. लेकिन कोइएक ज्ञान बढाता है और जब संवेदना की प्रतिक्रिया करता नही, तब एक के बाद एक sakhara(संस्कार) का निर्मूलन होते रहता है,और दुःख दूर होता है.
पूरा मार्ग दुख से बाहर आने के लिए एक रास्ता है. अभ्यास करके, आप देखेंगे की आपने नयी गांठे बांधना बंद किया है और अपने आप पुरानी खुलती जा रही है. धीरे धीरे आप ऐसे स्थिती तक प्रगती करेंगे जहा सब नया जन्म तक ले जानेवाली,और इसलिये नये दुख को उत्पन्न करनेवाली saṅkhārā(संस्कार) नष्ट होगीः पुरे मुक्ति का पडाव ,संपूर्ण ज्ञान .
काम शुरू करने के लिए, पिछले जन्मों और भविष्य के जीवन में विश्वास रखना चाहिए ऐसा आवश्यक नहीं है. विपश्यना के अभ्यास में, वर्तमान सबसे महत्वपूर्ण है. यहां वर्तमान जीवन में, कोईएक saṅkhārā(संस्कार) पैदा करते रहता है और अपने आप को दुःखी बनाते रहता है. यहाँ और अब आपको इस आदत को तोड़ना और दुःख से बाहर आना शुरू करना चाहिए. अगर आप अभ्यास करते हैं, तो एक दिन निश्चित रूप से आएगा जब आप कह सकेंगे की आपने सभी पुराने saṅkhārā(संस्कार) को जड से उखाड दिया है और कोई भी नया को पैदा करने बंद कर दिया है, और इस प्रकारसे सब दुःख से अपनेको को मुक्त कर दिया है.
इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, अपने आप को काम करना है. इसलिए शेष पांच दिनों के दौरान कड़ी मेहनतसे, अपने दुःख से बाहर आने के लिए, और मुक्ति का आनंद लेनेके लिये काम किजिये.
आप सभी को असली सुख का आनंद मिले.
सबका मंगल हो