विपश्यना
सत्यनारायण गोयन्काजी द्वारा सिखायी गयी
साधना
सयाजी ऊ बा खिन की परंपरा मैं
आचार्योंकी श्रुंखला
आदरणीय लेडी सयाडॉ
1846-1923
आदरणीय लेडी सयाडॉ 1846 में सॅंग-पिन गांव, डिपेयिन बस्ती, उत्तरी बर्मा के श्वेबो जिले (वर्तमान में मोनिवा जिला) में पैदा हुआ था. उनका बचपन का नाम मौन्ग टेट खौन्ग था. (लड़कों और युवकोंको, मास्टर के बराबर के लिए बर्मी संज्ञा है. टेट सूचित करता है की उपर चढना और खौन्ग सूचीत करता है की, छप्पर अथवा शिखर.)यह एक उपयुक्त नाम साबित हुई क्योंकि युवा मौन्ग टेट खौन्ग वास्तव में, अपने सभी प्रयासों में शिखरपे चढ़ गए.
अपने गांव में वे पारंपरिक विहार स्कूल में आते थे जहां bhikkhus(भिक्षुओं) बच्चों को बर्मीमे पढना लिखना सिखाते और साथ ही पाली पाठ सुनाते. इन सर्वव्यापी मठ स्कूलों की वजहसे, बर्माने पारंपरिक रूप से साक्षरता का एक बहुत उच्च स्तर को बनाए रखा है.
आठ साल की उम्र में उन्होंने अपनी पहली शिक्षक, यू-नंदा-धाजा सयाडॉ के साथ अध्ययन करना शुरू किया, और पंद्रह साल की उम्र में ही उसी सयाडॉसे samanera i>की दीक्षा ली.उनको नाना-धाजा (ज्ञान की ध्वजा) नाम दिया गया,उनकी विहारकी शिक्षामे पाली व्याकरण और विभिन्न ग्रंथों में आये हुए पाली नियम समाविष्ट थे, और विशेषता के साथ Abhidhammattha-sangaha i>, शामिल थी,जो एक Abhidhamma धारा के लिए एक गाइड के रूप में कार्य करता है
जीवन के उत्तरकालमें उन्होने Abhidhammattha sangaha i>पर एक विवादास्पद टिप्पणी लिखी जिसे Paramatttha-dipani (अंतिम सत्य के मैनुअल) कहा जाता है, जिसमें उन्होंने कुछ गलतियों को सुधारा जो उनको पहले तथा तभी प्रचलित विवरणात्मक आवृत्तींओंमे उन्हे दिखायी दि थी उनका सुधार अंततः भिक्खूओने स्वीकार किया और उनका काम एक मानक संदर्भ बन गया.
उन्नीसवीं सदी के मध्य भाग में, आधुनिक प्रकाश से पहले samanera i> के रूप में एक, वह नियमित तौर पर लिखित ग्रंथोंका दिन के दौरान अध्ययन करते थे और bhikkhus i> के साथ रहते तथा अन्य samaneras i>के साथ दिन के बाद अंधेरेमे स्मृति से सस्वर पाठ मे शामिल होते थे. इस तरह से उन्होने Abhidhamma संहितामे निपुणता हासिल कर ली.
जब वह 18 साल के थे, Samanera नाना-धाजाने संक्षेप वस्त्र छोड़ दिये और एक आम आदमी के तरह रहने लगे. वह उनकी शिक्षा के साथ असंतुष्ट हो गये थे क्यो की उनको लग रहा था कि यह Tipitaka i>. 3 sup>तक ही सिमीत किया था. छह महीने बाद उनके पहले शिक्षक और एक अन्य प्रभावशाली शिक्षक म्यिन्हतिन सयाडॉने उनको बुलाया और उन्हे विहारवासी जीवन में लौटने के लिये मनानेकी कोशिश की, लेकिन उन्होने मना कर दिया.
म्यिन्हतिन सयाडॉने सुझाव दिया कि उन्होने कम से कम अपनी शिक्षा जारी रखना चाहिए. युवा मौन्ग टेट खौन्ग बहुत तेजस्वी थे और सिखनेके लिये उत्सुक थे, इसलिये उन्होने इस सुझाव पर तुरंत सहमति व्यक्त की.
"आपको Vedas (वेदों), हिंदू धर्म की प्राचीन पवित्र लेखन सीखने में रुचि हो सकती है क्या?" म्यिन्हतिन सयाडॉने पूछा. P>
"हाँ, आदरणीय महोदय," मौन्ग टेट खौन्गने जवाब दिया। P>
"ठीक है, तो आपको samanera i> हो जाना चाहिए ," सयाडॉने कहा, " अन्यथा येउ गावके सयाडॉ यू गंधमा आपको छात्र के रूप में स्वीकार नही करेंगे." P>
"मैं एक samanera i> हो जाऊंगा" उन्होने सहमती जताइ.
इस तरह वह एक नौसिखिया के जीवन में लौट आए, फिर भिक्खूके वस्त्र कभीभी न छोड़ने के लिये.बाद में, उन्होने अपने शिष्यों में से एक को प्रतीत किया.
"सबसे पहले मैं वेदों i>के ज्ञान के साथ लोगों को भाग्य बता कर जीवित कमानेकी उम्मीद कर रहा था.लेकिन मैं उस में अधिक भाग्यशाली था मैं एक samanera i> फिर से बन गया.मेरे शिक्षक बहुत बुद्धिमान थे; उनकी असीम प्रेम और करुणा के साथ, उन्होने मुझे बचा लिया. "
प्रतिभाशाली Samanera नाना-धाजा, गंधमाने सयाडॉ की देखरेख में, आठ महीनों में वेदों i> मे मास्टरी हासिल की और Tipitaka i> का अपना अध्ययन जारी रखा. 20 साल की उम्र में, 20 अप्रैल, 1866 पर, भिक्खु बनने के लिए i> अपने पुराने शिक्षक यू नंदा-धाजा सयाडॉ,से उन्होने उच्च समन्वय लिया जो उनके गुरू (जो उपदेशों देता है) के तहत बन गये.
1867 में, मान्सून के पीछे हटने से पहले, भिक्खु नाना-धाजा ने, मांडले में अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए अपने गुरू और मोन्य्वा जिला जहां वह बडे हो गये थे,छोड़ दिया.
उस समय, जिनका शासनकाल 1853-1878 था उन राजा मिन डॉन मिनके शासन के दौरान, मांडले बर्मा के शाही राजधानी और देश में शिक्षा का सबसे महत्वपूर्ण केंद्र था.उन्होंने कई प्रमुख सयाडॉ के अधीन हो कर अध्ययन किया और साथ ही बडी आध्यात्मिक विद्वत्ता हासिल की. वे प्रमुखतासे महा-जोतिकरमा विहार में रहते थे और ऊन्होंने आदरणीय सान-क्यौन्ग सयाडॉ के साथ अध्ययन किया, जो बर्मा के एक ऐसे अध्यापक थे कि Visuddhimagga Path of Purification (शुध्दता का विशुद्धिमग्ग पथ) के बर्मीज मे अनुवाद के लिए बर्मा में प्रसिद्ध है.
इस समय के दौरान, आदरणीय सान-क्यौन्ग सयाडॉ ने 2000 छात्रों के लिए 20 सवालों की एक परीक्षा दे दी है. केवल भिक्खु नाना-धाजा एकही संतोषजनक ढंग से सभी सवालों के जवाब देने में सक्षम हुए. आदरणीय लेडी सयाडॉ द्वारा पाली और बर्मी में लिखी गई कई पुस्तकों मे प्रथम एसी Parami-dipani (पूर्णता के मैनुअल) > शीर्षक के अंतर्गत ये जवाब बाद में 1880 में प्रकाशित किए गए थे.
उनकी पढ़ाई के समय मंडालेके राजा मिन डॉनने पांचवा बौद्ध परिषद प्रायोजित किया, जिसमे bhikkhus i>को Tipitaka i>का पठन और शुद्ध करने के लिये दूर-दूर से बुलाया. परिषद 1871 में मांडले में आयोजित किया गया था और प्रमाणीकृत वचन 729 संगमरमर स्लैबमे खोदे गये प्रत्येक स्लैब स्वर्ण कुथोडॉ पगोडाके चारो ओर लगे हुए छोटे पगोडों के नीचे आज भी खड़े हैं. इस परिषद में भिक्खु नाना-धाजाने Abhidhamma(अभिधम्म) परीक्षणों के संपादन और अनुवाद में मदद की.
आठ साल के बाद bhikkhu(भिक्खु), सभी परीक्षाए पारित करने के बाद आदरणीय नाना-धाजाने Maha-Jotikarama (महा-जोतिकरमा) विहार जहां उन्होंने अध्ययन किया गया था, वहा परिचयात्मक पाली के एक शिक्षक की अर्हता पाइ.
आठ साल से अधिक काल तक वह वहां रहे. जब 1882 मे वे मोन्य्वा चले गये तबतक उन्होंने अध्यापन तथा अपने शैक्षिक प्रयासों को जारी रखा.अब वे 36 वर्षके हुए थे.उस समय मोन्य्वा छिन्दविन नदी के पूर्वी तटपर एक छोटा सा जिला केंद्र था,एसी जगह, की केवल कुछ भागों का चयन के बजाय पूरे Tipitaka i>की शिक्षण पद्धति वहा अध्यापनके लिये प्रसिध्द थी.
bhikkhus(भिखूओ) और saamheras(सामनेराओंको) पाली पढ़ाने के लिए, वे दिन के दौरान मोन्य्वा शहर में आते थे, लेकिन शाम को वे छिन्दविन के पश्चिमी तट को पार करके लाक-पन पहाड्के बाजूवाले एक छोटेसे vihara(विहार) मे अपनी रात ध्यानमे बिताते थे. हालांकि हमे कोई निश्चित जानकारी नहीं है, मगर यह संभावना है कि इस अवधि में जब उन्होने पारंपरिक बर्मी पध्दतीकी ध्यान के साथ Anapana (श्वसन) और Vedanā (संवेदना) का अभ्यास शुरू किया होगा
ब्रिटिशोंने 1885 में ऊपरी बर्मा पर विजय प्राप्त की और आखिरके राजा, थिबाव, जो 1878-1885 मे शासन कर रहे थे उनको अज्ञातवास भेजा. अगले साल, 1886 मे, आदरणीय नाना-धाजा मोन्य्वा के उत्तरी बाजूके लेडी वन में वापस चले गये. थोड़ी देर के बाद, कई bhikkhus i> वहाँ उनके पास आने लगे यह विनंती करनेके लिये की उन्हे वे सिखाए. एक विहार उनके रहने के लिये बनाया गया और लेडी--तव्या विहार नाम रखा गया. इस विहारसे उन्होने लेडी सयाडॉ नाम धारण किया जिस नामसे वह अच्छे जाने जाते है. यह कहा जाता है कि मोन्य्वा एक बड़े शहर के रूप में बढ गया, उसमेसे एक कारण था कि इतने सारे लोग लेडी सयाडॉके विहार के लिए आकर्षित होते थे. वह लेडी-तव्या पर कई महत्वाकांक्षी छात्रों को पढाते थे जबकि, वह अपने ही ध्यानके अभ्यास जारी रखनेकेलिए अपने छोटे कुटीरमे विहार i> नदी पार करके आते थे.
जब भी वह दस साल के लिए लेडी वन विहार में थे, तभी उनका मुख्य शैक्षिक काम प्रकाशित किया जाने लगा.पहला था उपर ऊल्लेख किये हुए Paramattha-dipani (अंतिम सत्य के मैनुअल) i> जो 1897 मे प्रकाशित हुआ. इस अवधि मे उनकी दुसरी किताब Nirutta-dipani i> जो पाली व्याकरण पर थी. क्योंकि इन पुस्तकोंकी वजहसे वे बर्मामे सबसे अधिक शिक्षित bhikkhus i> के रूप में जाने लगे.
जब भी लेडी सयाडॉ लेडी-तव्या विहारमे रहते थे, तब भी कई बार वह बर्मा भर में यात्रा करकर, दोनों ध्यान और शास्त्र पढाते थे. वास्तव में वह bhikkhu( भिक्खु) का एक दुर्लभ उदाहरण है, जो pariyatti i> (धम्म के सिद्धांत) के साथ ही patipatti i> ( धम्म का अभ्यास) मे उत्कृष्टता प्राप्त करने के लिए सक्षम थे. उनके बर्मा भर की इन यात्राओं के बीचमेही, उनके प्रकाशित हुए काम लिखे गये थे. उदाहरण के लिए, उन्होने Paticca-samuppada-dipani i> दो दिन में, प्रोमेसे मंडालेतक नाव मे यात्रा करते वक्त लिखा. उस वक्त उसके साथ कोई संदर्भ पुस्तके नही थी, लेकिन Tipiitakaका उनको पूरी तरहसे ज्ञान था इसलिये उनको कोई भी जरूरत नही पडी. Manuals of Buddhismबौद्ध धर्म की नियमावली) के 76 मैनुअल, टिप्पणियों, निबंध, इत्यादि उनके लेखकिय ग्रन्थकारिता के तहत सूचीबद्ध हैं, लेकिन यह भी उनके काम की एक अधूरी सूची है.
बाद में, उन्होने धर्म पर कई किताबें बर्मीमें लिखी. उन्होंने कहा कि वह इस तरह लिखे की एक साधारण किसान भी समझ सके.उनके समय से पहले, यह धम्म विषयों पर लिखना असाधारण था क्यो कि, वह सर्वसाधारण लोगोंके हाथमे न लगे.यहाँ तक कि मौखिक रूप से सिखाते समय, bhikkhus(भिखू) आमतौर पर Pali(पाली)मे लंबे परिच्छेद सुनाते थे और फिर उन्हें शब्दशः शाब्दिक अनुवाद करते थे,जो आम लोगों को समझना बहुत मुश्किल था.लेडी सयाडॉ की ताकदवर व्यावहारिक समझ, और उसके उपरांत उमडी हुई mettā(मेत्ता/मैत्री) समाज के सभी स्तरोंपर धम्म का प्रसार करनेकी उनकी इच्छा मे दिखाई देती है. उनका (Paramattha-sankhepa) परमाथ्था-संखेपा जो अभिधम्मथ्था-संगह(Abhidhammattha-sangaha) की 2,000 बर्मी छंदका अनुवाद की एक किताब है, जो युवा लोगों के लिए लिखी गयी थी वह आज भी बहुत लोकप्रिय है.उ्नके अनुयायियोंने कई संगठनाए शुरु करके इस पुस्तक का उपयोग करके Abhidhamma(अभिधम्म) सीखनेका प्रसार किया.
बर्मा के चारों ओर किये हुए अपनी यात्रा में,लेडी सयाडॉने गाय के मांस की खपतको हतोत्साहित किया. उन्होने एक किताब Go-mamsa-matika भी लिखी थी जिसमे लोगों को भोजन के लिए गायों को न मारने का आग्रह किया और शाकाहारी भोजन को प्रोत्साहित किया.
इसी अवधि के दौरान जों की सदी के अंत के बाद, आदरणिय लेडी सयाडॉ के पास यू पो थेट प्रथम उनके पास से विपश्यना सीखे और बाद में बर्मा में जाने-माने ध्यान शिक्षकों में से एक बने,जो की सयाजी यू बा खिन के शिक्षक रहे है, जो गोयन्काजीके शिक्षक बने,
1911 में उनकी ख्याति एक विद्वान और ध्यान गुरु इस दोनो रुपमे इस हद तक हो गयी थी कि वे भारत की ब्रिटिश सरकार द्वारा जो बर्मा पर भी शासन करती थी, Aggamaha-pandita (अग्रणी महान विद्वान की उपाधि) से सम्मानित किये गये.उनको रंगून विश्वविद्यालय से साहित्य की एक डॉक्टरेट की उपाधि से भी सम्मानित किया गया था.वर्ष 1913-1917 के दौरान उन्होंने लंदन में पाली पाठ सोसायटी के श्रीमती रिज़-डेविड,हे साथ पत्रव्यवहार किया था,और Abhidhammaपर कई बाबोंमे अपने बातचीत के अनुवाद Journal of the Pali Text Society.(पाली पाठ के जर्नल) में प्रकाशित किए थे.
अपने जीवन के अंतिम वर्षों में आदरणिय लेडी सयाडॉ की दृष्टि उन्हे विफल करने लगी क्योंकि कई सालोसे से उन्होने अक्सर कम रोशनी मे पढ़ना अभ्यास और लेखनमे बिताया. 73 की उम्र में वह अंधे हो गये और अपने जीवन के शेष वर्षों के लिए संपूर्णतः ध्यानमे और ध्यान को पढ़ाने के लिए समर्पित हुए. 77 साल की उम्र,1923 मे मंडाले और रंगून के बीच के प्यिन्माना में उनकी मृत्यु हुइ. यह एक कई विहारोंमेसे एक है जो उनकी बर्माकी पूरी भ्रमणयात्रा और सभी को पढ़ानेका एक परिणाम के रूप में उनके नाम से स्थापित किया गया था.
आदरणीय लेडी सयाडॉ शायद उनकी जीवनावधी कालके सबसे उत्कृष्ट बौद्ध व्यक्ति थी. वे सभी जो धम्म पथ के संपर्क में आ गए हैं. वह सब लोग जिन्होने विपश्यना के पारंपरिक प्रथा को पुनर्जीवित करके सभी सामान्य लोगोंको अधिक उपलब्ध कराई और समान रूप से सफल बनानेमे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ऐसे इस विद्वान, संत भिख्खूके प्रति,ऋणी है. उनके अध्यापनरुप का इस सबसे महत्वपूर्ण पहलू के अलावा, उनकी, संक्षिप्त, स्पष्ट और व्यापक विद्वत्तापूर्ण काम धम्म की अनुभवात्मक पहलू को स्पष्ट करने के लिए सहाय्यक रहे है.
1 sup> किताब Sayadaw i> इसका मतलब आदरणीय शिक्षक जो मूल रूप से महत्वपूर्ण बड़े भिक्षुओं को दिया गया था (Theras i>) जो राजा को धम्म में निर्देश देते थे. बाद में, यह सामान्य रूप में उच्च सम्मानित भिक्षुओं के लिए एक किताब बन गया.
2 sup> Abhidhamma पाली के तीसरे खंड नियम है, जिसमें बुद्धने मन और शरीरके वास्तविकता का गहरा, विस्तृत और तकनीकी विवरण दिया है .
3 sup> Tipitaka i> यह एक Pali i> पूरे बौद्ध नियमोंके लिए नाम है. इसका मतलब तीन टोकरी , यानि की एक टोकरी Vinaya i> (भिक्षुओं के लिए नियम); Suttas i> (प्रवचन) टोकरी और Abhidhamma i>अभिधम्म की टोकरी (ऊपर फुटनोट 2 देखें).