दस दिनका प्रवचन

Review of the technique (तकनीक की समीक्षा)

दस दिन खत्म हो गये हैं. हम समीक्षा करे की इन दस दिनों के दौरान हमने क्या किया है. हमने तीन रत्नोमे , जैसे बुध्द, धम्म, और संघ में शरण लेकर अपना काम शुरू कर दिया.ऐसा करने से आप एक संगठित धर्म से दूसरे धर्ममे परिवर्तित नहीं हो रहे हो. विपश्यना में रूपांतरण केवल दुख से खुशी के लिए, अज्ञान से ज्ञान के लिए, बंधन से मुक्ति के लिए है. पूरे शिक्षण सार्वजनिन है. आप एक व्यक्तित्व, हठधर्मिता, या संप्रदाय में शरण नही ली, लेकिन ज्ञान की गुणवत्ता में ली है. जो कोई मुक्ति के रास्ते को ढुंढता है वह बुद्ध होता हैं. यह ढुंढे हुए रास्तेको धम्म कहा जाता है. वे सभी जो इस तरह का अभ्यास करते है और साधुता के स्तर तक पहुचते है उसे संघ कहा जाता है. ऐसे व्यक्तियों से प्रेरित होकर, एक व्यक्ति मन की पवित्रता का एक ही लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए बुद्ध, धम्म और संघ में शरण लेता है. यह शरण वास्तविकतामे ज्ञान के सार्वजनीन गुणवत्ता जो अपने आप में विकसित करना चाहते है उसमे है.

उसी समय, कोई भी व्यक्ति जो पथ पर प्रगति करे उसके मनमे आदरभाव की भावना उत्पन्न होकर बदलेमें कुछ पानेकी उम्मीद के बिना दूसरों की सेवा करने की इच्छा होगी. ये दो गुण सिद्धार्थ गौतम,याने ऐतिहासिक बुद्ध में उल्लेखनीय थे. उन्होने अपने स्वयंप्रयासों से पूरी तरह से ज्ञान प्राप्त किया था. फिर भी, सभी प्राणियोंप्रति करूणा रखते हुए, उन्होने ढूढी हुइ यह तकनीक दूसरों को सिखाइ.

जो सभी इन तकनीक का अभ्यास और कुछ हद तक, अहंकार की पुरानी आदत को निर्मूलन करते है उनमे एक ही गुण दिखाई देते हैं. वास्तविक शरण, असली सुरक्षा, यही धम्म है जो आप अपने आप में विकसित करते है. हालांकि, धम्म के अनुभव के साथ-साथ वहां खोजने और इस तकनीक को पढ़ाने के लिए बुद्ध गौतम के लिए और उनके प्रती जिन्होने नि:स्वार्थ से पच्चीस सदियों से अपने मूल शिक्षाकी पवित्रता अबतक कायम रखते हुए शिक्षण बनाए रखा, उनके लिये कृतज्ञता की भावना बढना स्वाभाविक है.

इस समझ के साथ तीन रत्नो में आपने शरण लिया.

इसके बाद आपने पाँच नियमोंका उपदेश लिया. यह एक संस्कार या कर्मकांड नहीं था. इन नियमोंका उपदेश लेनेसे और उनका पालन करनेसे आप sīla(सिला), नैतिकता का अभ्यास करते है,जो इस तकनीक की नींव है. एक मजबूत नींव के बिना ध्यान का पूरा ढांचा कमजोर होगा. Sīla सिला सार्वजनीन और असांप्रदायिक है. आप सभी कार्यों, शारीरिक या मौखिक जो दूसरोंकी शांति और सद्भाव में बाधा डालते है उनसे दूर रहनेका वचन लिया है.  जो इन उपदेशों को तोड़ता है, उसे पहले मन में बहुत अशुद्धता विकसित करनी पडती है और वो अपने ही शांति और सद्भाव को नष्ट करता है. मानसिक स्तर पर विकसित हुई अशुद्धता शब्दो में या शारीरिक रूप मे व्यक्त होती है. विपश्यना में आप मन को शुद्ध करने के लिए कोशिश कर रहे हैं, इतनी की मन वास्तव में शांत और शांतिपूर्ण हो जाए. आप मन को शुद्ध कर नहीं सकते, जबतक आप ऐसा काम कर रहे है जिसमे अभी भी अशांती और अशुद्धता का प्रदर्शन जारी है.

लेकिन आप उस दुष्चक्र को कैसे तोड सकते है, जिसमें अशांत मन प्रतिकूल काम कर रहा है और जो अभी भी आगे अशांत करता रहेगा? विपश्यना शिविर आप को यह अवसर देता है. व्यस्त कार्यक्रम की वजह से, सख्त अनुशासन, मौन का व्रत, और मजबुत साहाय्यक वातावरण के वजहसे शायद ही अपने पांच नियम तुटने की कोई संभावना है. इस प्रकार दस दिनों के दौरान आप sīla सिला का अभ्यास करने में सक्षम हैं, और इस आधार के साथ आप samādhiसमाधि विकसित कर सकते हैं; और आगे जाकर यही आधार बनती है अंतर्दृष्टि की,जिसके साथ आप मन की गहराई में उतरकर इसे और शुद्ध कर सकते है.

इस तकनीक को सिखने के लिए, शिविर के दौरान आपने पाँच नियमों(शील) का पालन करने का वचन दिया. यह सीखनेके बाद जो धम्म का स्वीकार तथा अभ्यास करनेका फैसला करता है, उसे जीवन भर के लिये यह नियमोंका(शीलोंका) का पालन करना होता है.

इसके बाद आपने शिविर के दस दिनों के लिए बुद्ध और अपने वर्तमान आचार्य के प्रति आत्मसमर्पण किया. यह आत्मसमर्पण तकनीक को सरलतासे न्याय देनेके उद्देश्य के लिए किया गया था. कोई जो इस तरह से आत्मसमर्पण कर देता है, केवल वह तो आगे काममे पूरा प्रयास डाल देता हैं. जो संदेह से भरा हुआ है और विश्वास न रखनेवाला है वो ठीक से काम नहीं कर सकता. हालांकि, आत्मसमर्पण याने अंधा विश्वास निर्माण करना नहीं है; इनसे धम्म के साथ कुछ लेना देना नहीं है. अगर मन मे कोइ भी शंका पैदा हुई, तो आपको स्पष्टीकरण के लिए आचार्य से जितनी बार चाहे उतनी बार मिलनेके लिये प्रोत्साहित किया जाता है.

आत्मसमर्पण अनुशासन और शिविर के समय सारिणी के लिए भी था. इसकी रुपरेखा, पिछले हजारों छात्रों के अनुभव के आधार पर, आपको लगातार काम करके इन दस दिनोका पूरा लाभ प्राप्त करने के लिए कि गई है.

समर्पण से हम वास्तव में जैसा बताया वैसेही काम करनेका वचन देते है. जो भी तकनीक आप पहले से अभ्यास कर रहे हो उसका इस पाठ्यक्रम की अवधि के लिए अलग रखने को कहा गया है.आपको प्राप्त होनेवाला लाभ तथा इस तंत्रका मूल्यमापन केवल इसका विशेष रूप से अभ्यास, उचित तरीके से करनेसेही होता है. इसमे अन्य तकनीकोंका मिश्रण करनेसे आप गंभीर कठिनाइया पैदा कर सकते है.

तो फिर आपने मनपे प्रभुत्व और एकाग्रता का विकास करने के लिए आनापान का अभ्यास शुरु किया--- samādhi(समाधि). आपको कोईभी शब्द, आकार, या आकृति जोडेबिना मात्र केवल स्वाभाविक( नैसर्गिक) सांसका निरीक्षण करने के लिए कहा गया था. इस प्रतिबंध का एक कारण यह है की इस तकनीक की सार्वजनिनता को संरक्षित करना था: सांस सार्वलौकिक है और हर किसी के लिए स्वीकार्य है, लेकिन एक शब्द या आकृति कुछ लोगोंको स्वीकार्य होगा मगर दुसरोंको नहीं.

लेकिन शुध्द सांस के अवलोकन के लिए एक और महत्वपूर्ण कारण है.मानसिक-शारीरिक संरचना जाननेकी इस पूरी प्रक्रियामे खुदकी सच्चाई की गई एक खोज है. हम चाहते है वैसे नही. यह एक सच्चाईका अनुसंधान(जांच) है. आप बैठ जाइये और अपनी आँखें बंद कर दिजिये.वहाँ कोई आवाज नहीं, न कोई बाहरका उपद्रव, ना शरीर का हलनचलन. उस समय में अपने भीतर सबसे प्रमुख गतिविधि श्वसन है.आप इस वास्तविकताको देखना शुरु करते हैः सहज स्वाभाविक(नैसर्गिक) सांस, जैसेही वह नासिकामे प्रवेश करता है और बाहर जाता है. अगर आप को सांस महसूस न होती हो तब, बस नासिकाद्वार के क्षेत्र में अपना ध्यान केंद्रित करके जोरसे सांस लेनेकी और महसुस के बाद एक बार फिर से आपको सहज स्वाभाविक(नैसर्गिक),सामान्य, सरल सांस लेने की अनुमति दी जाती है. आपने इस स्थूल, प्रकट सच के साथ काम शुरू किया, और इसके बाद आप आगे चले गये, गहरी, सूक्ष्म सत्य की दिशा में, परम सत्य की तरफ. पूरे पथ पर, हर कदम पर, आप वास्तव में अनुभव के साथ स्थूल से सूक्ष्मतम के सच्चाई के साथ रहे. आप एक कल्पना शुरू करने से परम सत्य तक नहीं पहुँच सकते. आप केवल अधिक से अधिक कल्पना शक्ति, आत्म धोखे में उलझ जाएंगे.

आप श्वास के साथ एक शब्द जोडते, तो आप शायद और अधिक तेजी से ध्यान केंद्रित कर सकते. लेकिन ऐसा करने से खतरा हो गया होता. हर शब्द एक विशेष कंपन है. किसी शब्द या वाक्यांश दोहराने से, एक कृत्रिम कंपन पैदा होता है जिसमें हम घिरे जाते है.मन की उपरी स्तर पर शांति और सद्भाव उत्पन्न होता है, लेकिन गहराईमे दोष रहते है. केवल इन गहरे दोष से छुटकारा पाने के लिए उन्हें कैसे निरीक्षण करना है, उन्हें ऊपरी स्तरपर लाकर कैसे नीर्जरा कर देना है यह सीखना एकमात्र रास्ता है. केवल एक विशेष कृत्रिम कंपन देखेंगे, तो एक के दोष से संबंधित विभिन्न नैसर्गिक कंपन का निरीक्षण नही कर सकते. याने, शरीर के भीतर स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होने वाली संवेदना का निरीक्षण करने में हम सक्षम नहीं होंगे. इसलिए, यदि खुदकी सच्चाई का पता लगाना और मन को शुद्ध करना यही एक उद्देश्य है तब एक काल्पनिक शब्द का उपयोग करने से बाधाए उत्पन्न हो सकती है.

वैसेही काल्पनिक दृश्य - मानसिक रूप से बनाया चित्र या आकृति -  प्रगति के लिए एक बाधा बन सकती है. यह तकनीक परम सत्य तक पहुंचने के लिए भासमान सत्य को पिघला देने का मार्ग दिखाती है. भासमान, संकलित सत्य हमेशा भ्रमसे भरा हुआ रहता है क्योकि, इस स्तर saññā( संज्ञा) संचालित होता है. अनुभुती, जो पिछले प्रतिक्रियाओं से विकृत है, वह पसंती और पूर्वग्रहोंसे भरी पूर्वस्थापित अनुभुती पक्षपात और भेदभाव कर ताजा प्रतिक्रियाओं को जन्म देती है.  लेकिन भासमान सत्यके टुकडे करके, साधक धीरे-धीरे मानसिक-शारीरिक संरचना के अंतिम वास्तविकता का अनुभव करता हैः हर क्षण उत्पन्न और नष्ट होनेवाली संवेदना सिवाय, कुछ भी नही. इस स्तर पर कोई भेदभाव संभव नही, और इसलिए कोई पसंती या पूर्वाग्रह उत्पन्न नही होता, ना ही कोई प्रतिक्रिया. तकनीक धीरे-धीरे पूर्वस्थापित saññā संज्ञाको कमजोर करता है और अनुभुती और संवेदना को समाप्त करनेवाली स्थितीतक पहुचाता है, याने nibbāna निब्बाणाका अनुभव. लेकिन जानबूझ कर कोई आकार, आकृति, या दृष्टि की ओर ध्यान देकर, एक भासमान, रचित स्पष्टता तक रुकता है और उससे आगे नही बढ पाता. इस कारण से, वहाँ न हो कल्पना, ना शब्दको दोहराना.

सहज स्वाभाविक(नैसर्गिक) सांस को देखते हुए मन केंद्रित करने के बाद, आपने paññā(पन्ना)--प्रज्ञान को विकसित करने के लिए विपश्यना ध्यान का अभ्यास शुरू कर दिया.वह अपनी ही नैसर्गिक अंतर्दृष्टि है, जो मन को शुद्ध करती है. सिर से पावतक, आपने शरीर के भीतर की सहज स्वाभाविक(नैसर्गिक) संवेदना को देखना शुरु किया, बाहरसे शुरुवात करके और भितरतक जाते हुए,शरीरके प्रत्येक भागके भीतरकी और बाहरी संवेदना महसूस करना सिखा.

भासमान सत्य को विखण्डित करना और परम सत्य तक पहुंचने के लिए किसी भी पूर्वग्रहों के बिना,वास्तविकता का अवलोकन, - यह विपश्यना है. भासमान सत्यको विघटित करनेका उद्देश्य "मैं" के भ्रम से उभरने के लिए ध्यानी को सक्षम करता है. यह भ्रम हमारे सभी राग(आसक्ति) और द्वेष की जड़ में है, और महान दुख को बढाती है. एक बौद्धिक रूप से स्वीकार कर सकते हैं कि यह एक भ्रम है, लेकिन यह स्वीकृति पीड़ा को समाप्त करने के लिए पर्याप्त नहीं है. धार्मिक या दार्शनिक मान्यताओं के बावजूद, जबतक लंबे समय से अहंकार बने रहने तक साधक दुःखी ही रहता है. इस आदत को तोडनेके लिये उसको मानसिक-शारीरिक घटना के इस नियंत्रण से बाहर लगातार बदलते हुए अवास्तविक प्रकृति का अनुभव करना चाहिए.यह अकेला अनुभव इस अहंकार को भंग कर सकता हैं, जिससे दुःख से और राग(आसक्ति) और द्वेष से बाहर निकलनेका रास्ता मिलता है.

प्रत्यक्ष अनुभव से, "मैं, मेरा" की वास्तविक प्रकृति का प्रपंच देखना यह इस तकनीक का अन्वेषण है.इस घटना के दो पहलू हैं: एक शारीरिक और मानसिक, दुसरा शरीर और मन. ध्यान करनेवाला शरीर की वास्तविकता को देखना शुरू कर देता है. सीधे इस वास्तविकता का अनुभव करने के लिए, शरीर को महसूस करना चाहिए,याने पूरे शरीर में उत्पन्न होनेवाली संवेदना के बारेमे सचेत होना चाहिये. इस प्रकार शरीर के अवलोकन - kāyānupassanāकायानुपश्यना - मे संवेदना का अवलोकन शामिल हैvedanānupassanāवेदनानुपश्यना . इसी तरह से मन में क्या उठता है इसके अलावा मन की सच्चाई का अनुभव हम नहीं कर सकते. इस प्रकार, मन का अवलोकन -cittānupassanāचित्तानुपश्यना - -इसमे मानसिक अंतर्भाग का अवलोकन करना आवश्यक है-- dhammānupassanāधम्मानुपश्यना.

इसका मतलब यह नहीं है कि व्यक्तिने विचारोंपर ध्यान देना चाहिए. यदि आप ऐसा करने की कोशिश करते हैं, तो आप विचारों में घुमना शुरू कर देंगे. आप बस इस क्षण मन के स्वाभाविक रुप के बारे में सचेत होना चाहिए; चाहे वहा तृष्णा, द्वेष, अज्ञान, और अशांति प्रस्तुत है या नही.बुद्ध ने खोज की,जो कुछ भी मन में उठता है, शारीरिक संवेदना के साथ जुडा हुआ रहता है. इस कारण जैसेही ध्यानस्थ को "मैं" के मानसिक या शारीरिक प्रपंच का भौतिक पहलू अवगत होगा, इस समय संवेदना के बारे में जागरूकता आवश्यक है.

यह खोज बुद्ध का अद्वितीय योगदान है, जिसका उनके शिक्षामे मध्यवर्ती महत्व है. उनके पहले भारत मे और उनके समकालिकोमे , वहाँ कई थे जो sīla और samādhi (शील और समाधि) पढ़ाते और अभ्यास कराते थे. paññā(प्रज्ञा) का अस्तित्व था, कम से कम भक्ति या बौद्धिक ज्ञान में: यह आमतौर पर स्वीकार कर लिया गया कि मानसिक दुषितता ही दुःखका स्रोत हैं, और मन को शुद्ध करने और मुक्ति को प्राप्त करने के लिये राग(आसक्ति) और द्वेष को समाप्त किया जाना चाहिए. बस बुद्ध ने यह करने का रास्ता खोज दिया.

इसमे संवेदनाका महत्व समझने की कमी थी. अबतक  यह आम तौर पर सोचा गया था कि हमारी प्रतिक्रिया बाहरी वस्तुओं के लिए हो रही हैं - दृष्टि, ध्वनि, गंध, स्वाद, स्पर्श, विचार आदी. हालांकि,  भीतरके सच्चाई के अवलोकनसे पता चलता है की वस्तु और प्रतिक्रिया के बीच की एक कड़ी छुट गयी है: संवेदना. एक वस्तु और उससे संबंधित इंद्रिय का संपर्क संवेदना को जन्म देता है; saññā(संज्ञा) एक संवेदना सुखद या दुखद लगती है उसके अनुसार सकारात्मक या नकारात्मक मूल्यांकन प्रदान किया जाता है, और साथ ही एक राग(आसक्ति) या द्वेष की प्रतिक्रिया होती हैं. प्रक्रिया इतनी तेजीसे होती है की वह प्रतिक्रिया कई बार दोहराने के बाद और मनको काबू करनेतक खतरनाक शक्ति प्राप्त करने के बाद ही उसके प्रति जागरूकता विकसित होती है. प्रतिक्रियाओं के साथ व्यवहार करने के लिए, कहा पे वे(प्रतिक्रिया) शुरू हुई यह अवगत हो जाना चाहिए; वे संवेदना के साथ शुरू होती हैं, और इसलिए संवेदना के बारे में पता होना चाहिए. इस तथ्य की खोज  उनसे पहले अज्ञात थी, सिद्धार्थ गौतम ने यह ज्ञान प्राप्त किया और इस वजह से उन्होने हमेशा संवेदना के महत्त्व पर जोर दिया. संवेदनाए राग(आसक्ति) और द्वेष की प्रतिक्रियासे परिणामतः दुःखोतक ले जाती है, लेकिन संवेदना ज्ञान की अनुभूति तक भी ले जाती है जिससे प्रतिक्रिया रुकती है और दुःख से मुक्ती शुरू होती है.

विपश्यना में, संवेदना की जानकारी के साथ हस्तक्षेप करनेवाली कोइ भी प्रथा हानिकारक है, जैसे कोइ भी एक शब्द या आकृति पर ध्यान केंद्रित करना, या शारीरिक गतिविधियों के लिए ध्यान देना या मन में उत्पन्न होने वाले विचारों पर ध्यान देना. जब तक आप दुःख के स्रोत, संवेदना तक नही जाते तब तक आप उस दुःख का निर्मूलन नही कर सकते.

विपश्यना की तकनीक बुद्धने समझाई थी Satipaṭṭhāna Sutta सतिपठ्ठानसुत्त, "जागरूकता की स्थापना पर प्रवचन." यह प्रवचन तकनीक के विभिन्न पहलुओं में विभाजित किया गया है; शरीर, संवेदना,मन, और मानसिक संतुष्टताका अवलोकन. हालांकि, प्रत्येक विभाजन या प्रवचन के उपखंड एक ही शब्द के साथ समाप्त होता है. विभिन्न बिंदुओं से अभ्यास शुरू हो सकता है, लेकिन प्रारंभिक बिंदु कोइ भी हो फर्क नहीं पड़ता, ध्यानीको अंतिम लक्ष्य की राह पर कुछ स्टेशनों पर, कुछ अनुभवों के माध्यम से गुजरना होगा. इन अनुभव, विपश्यना के अभ्यास के लिए आवश्यक है,और यह वर्णन प्रत्येक अनुभाग के समापन पर दोहराया हैं.

पहला ऐसा स्टेशन है कि जिसमें साधक को (samudaya) समूदय उत्पन्न और नष्ट होने वाले (vaya)व्यय अनुभव को अलग से गुजरना पडता है. इस अवस्था में शरीर के भीतर की एकत्रित,संकलित सच्चाई को स्थूल संवेदना के रुपसे ध्यानी अवगत होता है. साधक को संवेदनाकी अनुभूति होती है, शायद उत्पन्न होनेवाला एक दर्द. यहापे कुछ समय के लिए रुक जाता है और अंत में यह दूर हो जाता है.

इस स्टेशन से आगे आगे जाते हुए, एक samudaya-vaya समुदय-व्यय के स्थिति मे प्रवेश करता है, जिसमें कोइ भी अंतराल बिना उत्पन्न होने वाली और नष्ट होनेवाली(संवेदना) का एकसाथ अनुभव होता है. स्थूल, एकत्रित संवेदना सूक्ष्म कंपन में बदल जाती है, उत्पन्न होती और महान तेज़ी से गिर जाती है, और मानसिक-शारीरिक संरचना की दृढ़ता गायब हो जाती है. स्थूल, तीव्र भावना और स्थूल तीव्र संवेदना दोनो सिर्फ तरंगो मे बदल जाती है. यह स्थिती है bhanga(भंग)-- विघटन की- जिसमें किसीको मन और शरीर के परम सत्य का अनुभव: किसी भी घनता के बिना लगातार उत्पन्न होने वाले और नष्ट होनेवाला अनुभव.

इस पथ पर bhanga(भंग) एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्टेशन है, क्योंकि केवल जब कोईएक मानसिक-शारीरिक संरचना के विघटन का अनुभव करता है तब उसके प्रती उसकी आसक्ति टूट जाती है. फिर वह किसी भी परिस्थिति में अनासक्त हो जाता है; याने कोईएक saṅkhārā-upekkhā संस्कार-उपेख्खा के पडाव पर प्रवेश करता है. निचेके बहुत गहरे दोष--saṅkhārāसंस्कार-- बेहोशी में दबे हुए अब मन की उपरी स्तर पर प्रदर्शित होने लगते हैं. यह एक प्रतिगमन नहीं है; जब तक वे उपरी स्तर पर नही आते तब तक दोष नहीं हटाया जा सकता. यह एक प्रगति है. वे उत्पन्न होती हैं, उन्हे कोईएक समता से देखता है, और वे एक के बाद एक समाप्त होती है. अपने पूराने द्वेष के इकठ्ठा हुएsaṅkhārā (संस्कार)को निकालने के लिए कोइ एक स्थूल, अप्रिय अनुभूती का उपयोग एक हथियार जैसा करता है; अपने पूराने राग(आसक्ति) के इकठ्ठा हुए saṅkhārā(संस्कार)को निकालने के लिए कोइ एक सुक्ष्म सुखद अनुभूती का उपयोग एक हथियार जैसे करता है . इस प्रकार, हर अनुभव के प्रति जागरूकता और समता बनाए रखने से, एक दबे हुए मिश्रण(संस्कारोके) को मन को शुद्ध, और nibbāna (निब्बाण) याने मुक्ति के लक्ष्य के करीब और करीब पहुच जाता है.

प्रारंभिक स्थान कोइ भी होने दिजीये,किसिको भी nibbāna(निब्बाण) तक पहुचने के लिये इन सभी स्टेशनों से गुजरना पडता है. कोईभी व्यक्ती लक्ष्य तक कितने जल्दी पहुंच सकता है यह वह कितना काम करता है और कितने विपूल पुराने saṅkhārā(संखारा) संग्रहोंका किसीको निर्मूलन करना है उसपर निर्भर करता है.

हर मामले में, हालांकि, हर स्थिति में,संवेदना को जानते हुए समता रखना आवश्यक है. Saṅkhārā संस्कार शारीरिक संवेदना से जागती है. संवेदना के प्रती समता रखकर आप नये saṅkhārā(संखारा) संस्कार उत्पन्न होने से रोकते है, और आप पुराने संस्कारों को समाप्त करते है. इस प्रकारसे समतासे संवेदना को देख कर, आप दुख से धीरे-धीरे मुक्तिके अंतिम लक्ष्य की दिशा में प्रगति करते है.

गंभीरता से काम करें. ध्यान को एक खेल मत बनाइये, कोइ भी तंत्रके दृढ अनुसरण के बिना एक के बाद एक अलग अलग तकनीक की कोशिश मत किजिये.यदि आप ऐसा करते हैं, तो आप किसी भी तकनीक के प्रारंभिक चरणों से परे आगे नही जा पाओगे और इसलिए आप लक्ष्य तक कभी नही पहुच पाएंगे. निश्चित रूप से आप एक सुविधाजनक तंत्र खोजने के लिए विभिन्न तकनीकों का परीक्षण कर सकते हैं. आप भी अगर जरूरत है, इस तकनीक दो या तीन परीक्षण दे सकते हो. लेकिन परीक्षण देने में केवल अपना पूरा जीवन निरर्थक मत गवाईये. एक बार जब आपको एक तकनीक उपयुक्त लगी, तो गंभीरता से इस पर इतना काम करे कि आप अंतिम लक्ष्य के लिए प्रगति कर सके.

हर जगह के दुःखी लोगोंको उनके दुख से बाहर आनेका रास्ता मिले.

सबका मंगल हो. (सभी प्राणी सुखी हो)