विपश्यना
सत्यनारायण गोयन्काजी द्वारा सिखायी गयी
साधना
सयाजी ऊ बा खिन की परंपरा मैं
दुसरे दिनका प्रवचन
पाप और पुण्य की सार्वभौम परिभाषा - आठ अंगोवाला आर्य मार्गः शील और समाधि
दुसरा दिन समाप्त हुआ.हालांकि यह पहले दिन की तुलना में थोड़ा बेहतर था, कठिनाईयां अभी जारी है. मन इतना बेचैन, अशांत, जंगली, एक जंगली सांड या हाथी जो मानव निवास स्थान में प्रवेश करके जो कहर मचाता है उसी तरह का है.एक बुद्धिमान व्यक्ति जंगली पशु को पालतू और प्रशिक्षीत करता है, तो उसके बाद अपनी सारी शक्ति, जो विनाशकारी के लिए इस्तेमाल होती थी, अब समाज के रचनात्मक कार्य के लिये शुरू करता है. इसी तरह मन, जो एक जंगली हाथी जैसा कहीं अधिक शक्तिशाली और खतरनाक है, उसिको शांत और प्रशिक्षित किया जाना चाहिए; फिर अपने अतिविशाल शक्ति आप की सेवा करने शुरू कर देंगी.लेकिन आपको बहुत धीरजसे, दृढतासे, और लगातार काम करना चाहिए.अभ्यास की निरंतरता हि सफलता कि कुंजी है.
आप को ही काम करना है; दुसरा कोई भी यह आपके लिए नही कर सकता हैं. सभी को प्यार और करुणा के साथ एक प्रबुद्ध व्यक्ति काम करनेका रास्ता बताता है, लेकिन वह अंतिम लक्ष्य तक अपने कंधों पर किसी को भी नहीं ले जा सकता. आप खुदको कदम रखना चाहिए, अपनी लड़ाई खुदको लड़नी चाहिये, अपने आप की मुक्ति साध ले. बेशक, जब आप काम शुरु करेंगे, तो सभी धम्म तरंगे आपको मदत करेगी, लेकिन अभी भी आपको ही अपना काम करना है. आपकोही पुरा रास्ता खुदको चलना है.
समझे जिस पर आपने चलना शुरू कर दिया वह रास्ता क्या है. बुद्धने बहुत सरल शब्दों में इसका वर्णन किया है:
सब पापी, अहितकारक कार्योसे बचे
केवल मंगल हितकारक काम करे
मन को शुद्ध करे;
यह प्रबुद्ध(ज्ञानी) लोगों की शिक्षा है.
यह एक सार्वजनीन मार्ग, किसी भी पार्श्वभूमि, जाति या देश के लोगों के लिए स्वीकार्य है. लेकिन पाप और पुण्य की परिभाषा करने में समस्या आती है. जब धम्म का सार खो जाता है, तब यह एक संप्रदाय हो जाता है, और फिर प्रत्येक संप्रदाय धार्मिकता को,जैसे कि एक प्रकारका बाहरी दिखावा या कर्मकांड करना, या विशेष प्रकारकी दार्शनीक मान्यता एक अलग परिभाषा देता है.ये सभी सांप्रदायिक परिभाषा है, कुछ लोगोंको लिए स्वीकार्य है और दूसरों के लिए नहीं हैं. तथापि धम्म, पाप और पुण्य की एक सार्वजनीन परिभाषा देता है. कोइ भी कार्य जो दूसरों को हानी पहुँचाता है, उनकी शांति और एकता का भंग करता है वह पाप,अहितकारक काम है. जिस कामसे दुसरोंको मदद करता है, जिससे उनकी शांति और एकता के लिए योगदान देता है, वह एक पवित्र, हितकारक कार्य है. यह परिभाषा किसी भी सिध्दांतानुसार नही, बल्कि प्रकृति के कानून के अनुसार है. और प्रकृति के कानून के अनुसार, किसिको भी पहले अपने मन को दुषित जैसे कि क्रोध,भय,घृणा आदि किये बिना दूसरों को हानि नही पहुँचा सकता; और जब एक मानसिक दुषितता उत्पन्न करता है, तो दुखी हो जाता है,और भीतर ही भीतर नरक के दुखों का अनुभव करता है. इसी तरह, कोई भी एक को पहले अपने मनमे प्रेम, करुणा, सद्भावना पैदा किये बिना दूसरों की सहायता का काम नहीं कर सकता; और जैसे ही किसिका शुद्ध मानसिक गुणों का विकास शुरू होता, एक को भीतर स्वर्गीय शांति का आनंद लेना शुरू होता है. आप दूसरों की जब मदद करते हैं, इसके साथ ही अपने आप को मदद होती है; जब आप दूसरों को नुकसान करते है, उसी समय इसके साथ अपने आप को नुकसान पहुँचता है. प्रकृति के सार्वजनीन कानून - यह धम्म, सत्य है.
धम्म के मार्ग को आर्य अष्टांगिक मार्ग कहा जाता है, इस अर्थ जो भी इस पर चलता है वह एक महान दिलवाला, संत व्यक्ति बनने के लिए बाध्य है. मार्ग तीन विभागो में बांटा गया है:शील, समाधी, और प्रज्ञा. शील नैतिकता है - शरीर और वाणी के अवांछित कार्यों से दूर रहना. समाधि अपने मनपर स्वामीत्व प्राप्त करनेके विकास कि हितकारक कृती है. दोनों का अभ्यास करना सहायक है, लेकिन न तो शील न ही समाधि मन में जमा हुए सभी अशुद्धियों का निर्मूलन कर सकता है. इस उद्देश्य के लिए पथ के तीसरे भाग का अभ्यास किया जाना चाहिए: प्रज्ञा(पन्ना) , ज्ञान का विकास, अंतर्दृष्टिका, जो पूरी तरह से मनको दि शुद्ध करता है. शील के अंतर्गत आर्य अष्टांगिक मार्ग के तीन भाग हैं:
1) सम्मा-वाचा - सही भाषण, मौखिक कर्मो की पवित्रता. वाणी की पवित्रता क्या है यह समझने के लिये, किसिको भी पता होना चाहिए की वाणी की अशुद्धता क्या है. दुसरोंको ठगाने के लिये झूठ बोलना, दुसरोंको दुखानेवाले कठोर शब्द, चुगली और निंदनीय बात, निरर्थक और बेमतलब बकबक यह सब मौखिक कर्म की अशुध्दता है. जब कोई इन से दुर रहता है, तो बाकी बाते सही है.
(2) सम्मा-कम्मन्ता(कर्म) - सही कर्म, शारीरिक कर्मो की पवित्रता. धम्म की राह पर काम की शुध्दता या अशुद्धता को मापने के लिए केवल एक ही मापदंड है, चाहे यह कायिक,वाचिक, या मानसिक हो, और इस कामसे अन्योको मदद होती है या उनको हानि पहुँचाती है. इस प्रकार हत्या, चोरी, बलात्कार या व्यभिचार, नशे में धुत्त रहना ऐसे कर्म जिससे दुसरोंको और अपनेको भी नुकसान हो रहा है इसका पता न चले की हम क्या कर रहे है, यह सभी दुषित कर्म है. जब कोई व्यक्ती इन दुषित शारीरिक कर्मोसे दूर रहता है, तब बाकीके सर्व कर्म सही है.
(3) सम्मा-आजिवा -सही आजिविका. हर किसीको खुद के और जो लोग उन पर निर्भर कर रहे हैं उनके लिये धन कमाना चाहिए, लेकिन अगर यह धन कमाना दूसरों के लिए हानिकारक है, तो यह एक सही आजीविका नहीं है. शायद कोई भी अपनी आजीविका गलत तरीकेसे न करते हो, लेकिन ऐसा करने के लिये दूसरों को प्रोत्साहित करता है; यदि हां, तो यह एक सही आजीविका नहीं है. उदाहरण के लिए, शराब बेचना, जुएका अड्डा चलाना, हथियारों की बिक्री, जिवित जानवरों या जानवर के मांस की बिक्री इनमेसे कोई भी आजीविका सही नही है. यहां तक कि उच्चतम पेशा, अगर दूसरों का शोषण करने के लिए प्रेरणा देती है, तो एक सही आजीविका नहीं है. अगर कोई समाज का सदस्य होने के वजहसे प्रेरणा देता है,अपना कौशल्य और परिश्रम दुसरोंके भलाई के लिये योगदान देता है और इसके बदलेमे अपने लिये और अपने आश्रितोके लिये कुछ कमाता है तो यह आजिविका सही है.
एक गृहस्थ, एक सामान्य व्यक्ति को, अपने खुद के सहारे के लिए पैसे की जरूरत है. तथापि, पैसा कमाने के अहंकार बढ़ करने के लिए एक साधन बन जाने का खतरा है: एक अपने आप के लिए जितना संभव है उतना एकत्र करना चाहता है, और जो लोग कम कमाते है उनके लिए अवमानना मानता है. इस तरह का दृष्टिकोण दूसरों को हानि पहुँचाता है और अपने आप को भी हानि पहुँचाता है, क्योंकि जितना प्रबल अहंकार, उतनाही कोइ भी मुक्ति से दूर ले जाता है.इसलिए सही आजीविका का एक अनिवार्य पहलू दान, जो कमाता है उसका हिस्सा दूसरोंको देना है. तब एक न केवल अपने लाभ के लिए बल्कि दूसरों के लाभ के लिए कमाता है.
अगर धम्म दूसरों को नुकसान करनेवाले कामसे बचनेका मात्र उपदेश होता, तो यह कोई प्रभावशाली नहीं होता. बौद्धिकतेसे कोइ भी एक अयुक्तिसंगत काम करने का खतरा और युक्तिसंगत काम करनेका फायदा समझ सकता है, या एक उपदेश देनेवालेके भक्तिके वजहसे शील के महत्त्व का स्वीकार कर सकता है. फिर भी एक गलत काम करना शुरु रखता है, क्योंकि उसका मन पर कोई नियंत्रण नहीं. इसलिए धम्म का दूसरा भाग, समाधि—अपने मनपर स्वामित्व विकसित करना. इस विभाग के अंतर्गत प्रभावशाली अष्टांगिक मार्ग के तीन हिस्से हैं:
(4) सम्मा-व्यायाम -- सही प्रयास, सही व्यायाम. आपने अभ्यास करके देखा है कि मन कैसे कमजोर और कितना दुर्बल है, हमेशा एक विषय से दूसरे विषय तक लहराता है. इस तरह के मन को मजबूत बनाने के लिए व्यायाम की आवश्यकता है. मन को मजबूत करने के लिए अभ्यास के चार प्रकार हैं: अगर अयुक्तिसंगत गुण है तो हटाना, अयुक्तिसंगत गुण नही है तो ऐसे अयुक्तिसंगत गुण आनेही न देना, मौजूद युक्तिसंगत गुण को सुरक्षित रखना तथा उनका संवर्धन करना, और जो अपनेमे नही है ऐसे हितकारक गुणोको अपनाना. अप्रत्यक्ष रूप से, सांस के सजगता के अभ्यास द्वारा (Anapana) आपने यह कार्य शुरू कर दिया है.
(5) सम्मा-सति - सही सजगता, वर्तमान क्षण के सच्चाई की जानकारी. भूतकाल की सिर्फ स्मृति रहती है; भविष्य के लिए केवल आकांक्षाओं, भय, कल्पना शक्ति हो सकता है. नासिका के सीमित क्षेत्र के भीतर जो सच्चाई वर्तमान मे प्रकट हो रही है उसके जानकारी के लिये आपने अपना प्रशिक्षण,सम्मा-सति के अभ्याससे शुरू कर दिया है. आपको स्थूल सच्चाई से सुक्ष्मतम सच्चाईतक कि पुरी सच्चाई कि जानकारी मालूम करने की क्षमता विकसित करनी होगी. शुरू के लिए, आपने सचेत, सहेतुक सांस पर ध्यान दिया, बादमे नैसर्गिक, धीमे सांस, बादमे सांस के स्पर्श पर ध्यान दिया. अब आप ध्यान के लिये इससे भी अधिक सूक्ष्म आलंबन लेंगे - इस छोटे स्थानपर होनेवाली नैसर्गिक, शारिरीक संवेदनाए. आपको सांस का तापमान भितर आतेसमय थोडा ठंडा, और शरीरसे बाहर जाते समय थोड़ा गर्म महसूस हो सकता है. इसके अलावा, वहाँ सांस से संबंधित नहीं ऐसी असंख्य अनुभूतियां होती है, जैसे कि गर्मी, सर्दी, खुजली, कंपन, दबाव, तनाव, दर्द, आदि.क्योंकि आप संवेदना उत्पन्न नहीं कर सकते इसलिये कौनसी संवेदना महसूस करे इसका चयन नहीं कर सकते. सिर्फ निरीक्षण ; सिर्फ सजग रहे. संवेदना कौनसी यह महत्वपूर्ण नहीं है; बिना प्रतिक्रिया से संवेदना कि सच्चाई कि जानकारी महत्वपूर्ण है.
जैसा की आपने देखा है कि राग(असक्ति),द्वेषको निर्माण करते हुए भविष्य या भूतकालमे रमण करना यह मन की आदत है. सही सजगता का अभ्यास करके आपने इस आदत को भंग करना शुरू कर दिया. ऐसा नहीं है कि इस शिविर के बाद आप पूरी तरह से भूतकाल को भूल जाएंगे, और भविष्य के लिए बिल्कुल भी विचार नहीं आयेगा. लेकिन वास्तव में आप अपनी ऊर्जा भूतकाल या भविष्य में इस तरह घुमनेमे अपव्यय करते है, कि जब आपको कुछ याद रखना या योजना बनानेकी जरुरत है, तब आप वो नही कर सकते थे. सम्मा-सति विकसित करके, आप वर्तमान सच्चाई में अधिक मजबूती से अपने मन को स्थिर करना सिखेंगे, और आपको लगेगा तब आप आसानी से भूतकाल को जरूरत होनेपर याद कर सकते हैं, और भविष्य के लिए उचित प्रावधान कर सकते है. आप एक आनंदमय, स्वस्थ जीवन जीने के लिए सक्षम हो जाएंगे.
(6) सम्मा-समाधि - सही एकाग्रता. सिर्फ एकाग्रता इस विधी का उद्देश्य नहीं है, एकाग्रता आप जो विकसित करते है उसीको पवित्रता का आधार होना चाहिए. आसक्ति, द्वेष, या भ्रम के आधार के साथ मन पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं, लेकिन यह सम्मा-समाधि नहीं है. किसीको भी अपने भीतरकी वर्तमान सच्चाई का किसी भी आसक्ति या द्वेष के बिना पता होना चाहिए.इस सजगता को लगातार पल से पल तक कायम रखना चाहिये. - यह है सम्मा-समाधि .
पाँच नियमों का अनुसरण करके आपने शील का अभ्यास शुरू कर दिया. अपने मन को एक जगह पर केंद्रित करके,आसक्ति या द्वेष के बिना इस क्षण कि सच्चाई से आपने समाधि को विकसित करना शुरू कर दिया.अपने मनको तीक्ष्ण बनानेके लिये अब लगन से काम करे,इसलिये कि अचेतन की गहराई तक जानेके लिये जब आप प्रज्ञा का अभ्यास शुरु करेंगे, वहाँ छिपे हुए सब विकारोंको निकालनेके लिये, और सच्चा आनंद लेने के लिए सक्षम हो जाएंगे-- मुक्ति की खुशी.
आप सभी के लिए सच्ची खुशी.
सभी प्राणि सुखी हो!